*अहंकार *
डा . अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
*अहंकार *
मानवता का आदर्श मर्यादा से अभिसिंचित होता है । मनुष्य का मनुष्य के प्रति व्यवहार मर्यादा से ही आबद्ध रहता है, शरीर में जैसे त्वचा का आवरण है, न भाई , उसी प्रकार मनुष्यता में मर्यादा का आवरण प्रतिबद्ध रह्ता है यही महत्व पूर्ण है । यही जीवन की सार्थकता के लिए इसकी रक्षा के लिए प्रत्येक मानव का परम कर्तव्य है । श्री की स्थापना अहंकार के साथ असम्भव है | और प्रयास क्या रह्ता है मनुष्य का, सभी को अपने संरक्षण में रखें । अपने अंकुश में रखे | ये तो बडी अजीब स्थिति है खुद का खुद पर नही नियन्त्रण मन का पन्छी सोच रहा है कैसे कर लू जग संतर्पण |
अविकारी होना अस्मभव है विकारों के साथ जीना एक दम सहज है , गुरु तुम्हारी इसी स्थिति को इस कमजोरी को भली भान्ति समझता है रोज रोज एक ही मन्त्र देगा – अविकारी बनो , अविकारी बनने क सरल उपाए समझाता है , सब कुछ छोड उसकी शरण में आ जाओं अर्थात अपने पर अपना नियन्त्रण छोड गुरु के अधिकार में रहो , तुम्हारी स्थिति , शून्य और गुरु की – सर्वागीण – ऐसा कैसे सम्भव है इश्वर के मनुष्य को स्वतंत्र बनाया है – किसलिए ? क्या यही काम रह गया | बुद्धि दी – क्या इसी लिए ज्योति दी क्या इसीलिए रसना जिव्हा कर्ण नासिका किसलिए – ? इसी लिए के आप किसी के गुलाम बन जाओ ? न रे मुन्ना न – किसी से ज्ञान लेना उसका कृतग्य होना महत्वपूर्ण है लेकिन कृतज्ञता के मध्य गुलामी न रे मुन्ना ना | ये स्वीकार कर लेना अतिशयोक्ति होगी , करते हैं प्रतिदिन असंख्य | फेंसला सबका स्वयं का होता है | यही है सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग |
गुरु कह्ता है – निर्विकार अवस्था अच्छी है – बिल्कुल सही मानने वाली बात है – अब आप निर्विकारी होने के लिए प्रयास कर रहे , नही हो रहा , होगा भी नही , फिर क्या गुरु गलत है , अरे नही मुन्ना गुरु कभी गलत हो नही सकता | फिर क्या मैं पापी हुँ , ये भी गलत , फिर क्या ये मेरे बस से बाहर है , मैं क्या कभी निर्विकारी नहीं हो पाऊँगा | ये भी गलत – फिर सही क्या है | देखो हम जिस चीज के पीछे भागते हैं वो चीज सदा से हम से उत्ती दूर भागती , लेकिन शान्त स्वभाव से उसका स्मरण करते करते एक दिन मन अभायसी हो जाता है जिस की इच्छा होती उसका | यही स्थिति है उस भाव , वस्तु , को काबु करने का यही सही समय है उसको फटाक से प्राप्त करने का |
अहंकार के बिना मनुष्य का कोई आकार नही हो सकता लेकिन उसका भाव उसके भाव को अपनी अभिव्यक्ति से आगे रख कर चलना सीख जाना सही मानवीय उपलब्धि है |
ये भाव ये गुण ये मन्त्र जिसने समझ लिया वही अविकारी , निरंकारी , निर्विकल्पा हो जाता उसी क्षण |