अस्थि-पंजर
मेघ आती है बूंद – बूंद में
कुछ लफ्ज़ लिए…
कुछ कशिश लिए…
अतृप्त को भरने को
पुनः – पुनः
स्त्री देह में समाने में
अनवरत रूप में
क्षिति से आँगन तक
उच्चार से हुंकार भर रही ।
उस स्त्री की फैली कुंतल
स्यायी – सी___
किसी अनजान नक्शे में
रेखीय चित्र उभर जाता है
फिर उसी बनी हुई चित्रों में
मैं भूगोल के भारत को खोजता हूं
वो टटोलती इतिवृत्तों में
सुनहरी धूप के घेरे लिए
अस्थि-पंजर की गीत गा रही।