अस्तित्व
लौ की क्या क़ीमत
जो बाती न जली होती
बाती का क्या मूल्य
जो दीये की ओट न मिलती
दीये का क्या अस्तित्व
माटी जो न पकी होती
माटी का क्या मोल
धरा की कोख में जो न पलती
और धरा निरंतर लड़ रही लड़ाई
अपने अस्तित्व की व्यक्तित्व की
तुमसे मुझसे हम सब से
जैसे लड़ रहे लौ बाती दिया माटी
तुम हम सारी परिपाटी
अपने अपने अस्तित्व के लिए
क़ीमत मोल व्यक्तित्व के लिए
तुमसे हमसे हम सब से
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया