अस्तित्व इक नारी का
डेढ़ अक्षर के जिस शब्द में समाया ईश और संसार
और कोई नहीं स्त्री उस शब्द का नाम है,
मां, बहन,संगिनी और बन के बेटी कराई जिसने पार
हर मझधार है,
कोई और नहीं वो प्रकृति का बनाया अनोखा
चमत्कार है,
कभी पुजी जाती देवी बनकर,
तो कभी साया बनकर साथ चलती,
गम में मां का आंचल बनती,
तो कभी बुन देती अपनों के लिए खुशियों का वो
जाल हैं,
शीश झुकाते देव भी जिसके आगे, प्रकृति उसकी
कर्जदार है,
सुबह ओ शाम खुद को कैद कर करती वो सबको
आजाद है,
मकान को घर बनाती जो रिश्तों का वो ही एक
आधार है,
दरिंदगी, हैवानियत से होता रोज़ सामना उसका,
हया भी होती उसकी शर्मशार है,
फिर भी मौन रहकर अपनो के लिए जीती वो हर बार
कोमल कमजोर नाजुक बनी अब तक बस यही
उसकी पहचान है,
जानकर अनजान बनता जहां, कि वो ही सृष्टि की
कर्ता धर्ता और विराम है,
दुनिया झुकती जिस त्रिदेवी के आगे,
उसमे समाया उन्हीं का सार है,
आती आंच जब अपनों पर करती वो समाज की
बनाई हर रेखा पार है,
जहां समझता अबला जिसे ,
अपनो की रक्षा के लिए बन जाती वो महाकाल है,
समझकर दुनिया और समाज को यह,
अब कर रही खुद को कैद से वो आजाद है,
नामुमकिन को मुमकिन कर करती एक नई पारी का
आगाज़ है,
दुनिया झुकती जिसके आगे , कदम बढ़ाती वो बनके
उसी की एक नई मजबूत पहचान है।