असहाय
असहाय
अपने पत्नी को खोकर
बन गया दरिद्रता का निवाला
इलाज़ जरूरी था तो बेच दी सारी दौलत
बेटी के कहने पर।
जो थी
जीने की वजह
लेकिन वो भी बड़ी हो गई थी अब
सर्वगुण सम्पन्न थी
लेकिन दहेज के दौड़ में
बिना दहेज अपनाता कौन
करा दिया शादी
एक विकलांग से
और स्वयं त्याग दिए प्राण संताप से।
सारे दृश्य मार्मिक हैं
मजबूरी से आच्छादित हैं
लेकिन उसका क्या ?
जो स्त्री सहारा बन गई
एक असहाय का
असहाय था रिक्शा पर बैठा
निशक्त पुरुष
निर्बल था जिंदगी के होड़ में।
और रिक्शा को ठेलती हुई
आगे बढ़ रही स्त्री
सबल थी संघर्ष के दौड़ में।
दीपक झा रुद्रा