अश्रुपात्र … A glass of tears भाग – 5
पीहू अक्सर शुचि के साथ पार्क आती थी मॉर्निंग वॉक के लिए। मम्मी के पास समय नहीं होता था… पहले तो विभु की देखभाल और फिर नानी तो विभु से भी छोटी बच्ची बन गईं थीं।
आज माँ बेटी दोनों हाथ मे हाथ पकड़े लम्बी वॉक के लिए आईं थीं। आज शाम तक पापा भी आ जाने वाले थे और पुलिस स्टेशन से भी कई टीम अलग अलग एरियाज में भेजी गईं थी। पूरी उम्मीद थी कि नानी शाम तक घर होंगी।
‘मम्मी ऐसा क्यों था कि नानी की जान आपकी बहन में बसती थी… अगर भगवान न करे आपको कुछ हो जाता तो… तो तब भी क्या नानी का यही हाल होता?’
‘माँ के लिए सभी बच्चे बराबर होते हैं पीहू… पर फिर भी किसी बच्चे से उम्मीद और सपने ज्यादा बंध जाते हैं। सुरभि बहुत समझदार और व्यवहारकुशल थी… बचपन से ही।’
‘ जबकि मैं काफी जिद्दी …’ माँ ने आगे कहा
‘वो हमेशा माँ कि मदद करती… जब माँ रसोई घर मे पसीने में लथपथ खाना बनाती तो हमे बाहर जाने को कहतीं। मैं चली जाती पर वो कहती- नहीं माँ मैं आपकी मदद करूँगी…’
‘वो अपने नन्हे नन्हे हाथों से सबको एक एक करके खाने की थाली देकर आती। रोज़ प्यार से माँ का सिर दबाती… और मैं खेल में ही लगी रहती…’
‘ माँ की पसन्द के कपड़े पहनना, उनके कहे अनुसार सोना, जागना, हनुमान चालीसा पढ़ना। बिना परेशान किये होमवर्क करना उसकी रोज़ की आदत थी जबकि मैं हर काम मे माँ को झिका देती थी।’
‘मम्मी… मुझे यकीन नहीं आ रहा आप ऐसी थीं…’ पीहू आश्चर्य से बोली
‘पता है पीहू जब कभी कोई सुरभि से पूछता तुम बड़ी हो कर क्या बनोगी… तो वो कहती – मम्मी…’
‘मम्मी…. मतलब’
‘ उसका मतलब होता था वो बड़े हो कर बिल्कुल मम्मी जैसी ही बनेगी…’ सुगन्धा आँखों मे आँसू लिए हँसने की कोशिश करने लगी।
‘सुरभि सिर्फ माँ का ही नहीं मेरा भी सपोर्ट सिस्टम थी। मुझे पढ़ाई में बिल्कुल इंटरेस्ट न था। सुरभि क्लास में सबसे पहले काम खत्म कर लेती… मैं उसकी तरफ आँखों के इशारे से पूछती… हो गया…? और उसकी हामी मिलते ही मैं अपनी कॉपी बन्द कर देती क्योंकि मुझे पता था कि वो घर जा कर मुझे काम दिखा ही देगी…’
‘माँ के लिए पापा, दादी और पड़ोसियों तक से लड़ लेती थी वो दस साल की उम्र में….’ कह कर सुगन्धा पास पड़े बेंच पर बैठ गई
‘ओह पीहू …. उसका जाना….
माँ ने कभी किसी से कहा नहीं पर … पर मैं धीरे धीरे समझने लगी थी कि… मन की बातें जब मन ही में रह जाती हैं न … तो वो ठहरे हुए उस पानी की तरह हो जाती हैं जो सिर्फ सडांध ही पैदा करता है, जिस पर सिर्फ काई ही जम सकती है। वो बातें जो हम किसी से कह नहीं पाते… वो आँसुओ के रूप में ढल के नाज़ुक से दिल के कोने कोने पर बोझ बन कर उसे पल पल घायल करतीं हैं। इंसान भीतर से तिल तिल करके खत्म होता है जबकि बाहर से शरीर हष्टपुष्ट दिखता है …’
‘वो सुरभि को बता नहीं पाईं की वो उसे सबसे ज्यादा प्यार करतीं हैं… वो कभी किसी को कुछ बता नहीं पायीं… वो … वो तुम्हे भी कहाँ बता पाईं पीहू कि वो तुमसे कितना प्यार करतीं हैं। कहाँ जता पाईं … जब तुम्हे स्कूल से आने में ज़रा भी देरी होती थी तो वो पूरे घर मे बदहवासी में इधर उधर चक्कर लगाती रहतीं थीं। वो….’
‘आप ये सब कैसे जानती हो मम्मी…’
‘बेटी हूँ उनकी… सब जानती हूं उनके बारे में… उनके बिना कहे। उनकी फिक्र उनका प्यार… सब कुछ। सुरभि खुद तो चली गई पर अपनी आदतें माँ के लिए अपना प्यार, अपनी आत्मा जैसे सब कुछ मुझ में छोड़ के चली गई। मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब से उसके जैसी बननी शुरू हो गई थी…’
‘मम्मी… आपने ये क्यों कहा कि वो कभी बता नहीं पाई की वो सुरभि मासी को कितना प्यार करतीं थीं…’
‘सुरभि पढ़ने में जीनियस थी और मैं फिसड्डी, वो बेहद सुंदर थी माँ की तरह और मैं थोड़ी कम। उसका हर काम, हर बात हर गुण मुझसे कई दर्जा ज्यादा होता था… इसीलिए सब उसे ज्यादा प्यार करते थे और मुझे कम। और हर माँ की ये फितरत होती है कि वो अपने कमज़ोर बच्चे की ओर ज्यादा झुकती है जिस से उसे दुख न हो। माँ ने भी हमेशा यही किया मुझे ज्यादा सहारा ज्यादा प्यार दिया और सुरभि को हमेशा समझाया कि बेटा सुगन्धा थोड़ी कमज़ोर है ज़िद्दी है उसे हम दोनों को ही मिल कर सम्भालना है। और उसने हर बार की तरह माँ की बात पर हामी भर दी… पर सच यही था कि माँ उसे कहना चाहती थीं कि तुम मेरी सबसे प्यारी बेटी हो। पर उसे बताने से पहले ही ….’ मम्मी को आज पहली बार ऐसे बिलख बिलख के रोते देखा था पीहू ने
‘पर मम्मी… मासी को तो बुखार ही हुआ था न…?’
‘हाँ… बुखार था… डॉक्टर ने तीन दिन इंतज़ार करने को कहा था। दादी ने तो हर बार की तरह कहा – अरे लड़की है … लड़कियों को कुछ नहीं होता… बड़ी सख्त जान होती हैं ये कमबख्त। पर माँ ज़िद्द करके पापा के साथ दोबारा डॉक्टर के पास जाने की तैयारी कर रहीं थीं… की दो तीन उल्टियाँ हुईं सुरभि को…. और…. सब खत्म…’
‘ माँ चीखना चाहती होगी … रोना चाहती होगी… पर अपनी गोद में अपने सारे सपने, सारी उम्मीदें, रोज़ ढेरों वादे करती अपनी रक्षक बिटिया को बेजान पड़े देख कर उनकी आँखों से बड़ी देर तक तो आँसू भी न निकले थे। मैं भी दस ही साल की थी… समझ नहीं पा रही थी कैसे रहूँगी इसके बिना…’
‘माँ के कानों में पल पल गूंजती थीं वो बातें
‘- मम्मी मैं बड़ी हो कर न एक घर बनाऊँगी… वो घर आपका होगा। वहां आप अपने तरीके से रहना… कोई काम नहीं करने दूँगी आपको… बस आप हुकुम चलाना।’
‘ देखो मम्मी मैं आपके कानों से भी ऊपर हो गई… कुछ दिनों में आपके बराबर आ जाऊँगी..’
क्रमशः
स्वरचित
(पूरी कहानी प्रतिलिपि एप्प पर उपलब्ध)