अश्रुनाद … प्रकृति
….. अश्रुनाद मुक्तक संग्रह …
. …. द्वितीय सर्ग ….
…… प्रकृति …..
नीरवता में गुञ्जाती
कलकल कलरव ध्वनि आती
विरही कोयल तब मेरी
कुछ गाती फिर भरमाती
नित नव कलियों का आना
सुरभित होकर मुरझाना
कलि- काल ग्रसित जीवन में
अभिनव अभिनय कर जाना
अवचेतन में अकुलाती
अनुकृति अनुभूति कराती
युग- युग से चाह मिलन की
बन मरीचिका भटकाती
सुन्दर नव सुखद सवेरा
जग से कर दूर बसेरा
स्वच्छन्द रमण हो जिसमें
कल्पना- लोक चिर मेरा
सरिता की अविचल तीरे
जब अञ्चल भू ने चीरे
कलकल हो प्लावित जीवन
आह्लादित धीरे – धीरे
मम हिय में तिमिर समाया
ब्रह्माण्ड निखिल है पाया
तारक निहारिका नभ की
जीवन के पथ पर छाया
रवि शशि अनन्त नभ न्यारे
अगणित वसुधा ग्रह तारे
अभिनन्दन करते मन में
सुषमा निहारते सारे
तिमिराञ्चल की शालायें
कल्पित शशि कलित कलायें
तम के छल में खो जातीं
उत्तुंग शिखर मालायें
मेरी जीवन आशायें
जैसे हों चन्द्र कलायें
घट बढ़ विलुप्त हो जातीं
हाथों की मृदु रेखायें
तन- दीपक जब जल जाता
हो दग्ध शलभ मर जाता
उस महामिलन की लौ में
जग को ज्योतित कर जाता
रवि की किरणो से पा ली
अनुपम प्रभात ने लाली
भर स्वर्गड़्गा से अञ्जुलि
अनुग्रह प्रसाद की थाली
अन्तर में कोयल गाती
आघातों को सहलाती
कोलाहल ग्रसित जगत में
कर कुहू – कुहू उड़ जाती
पावक , चकोर चुग जाता
जीवन की क्षुधा मिटाता
निशि में निहार नित अपलक
अभिलाषित अमिय लुटाता
हिम- गिरि गल नीर बहाये
हिय नील विलय हो जाये
प्रिय मिलन चाह को लेकर
फिर सरिता बन उफनाये
गोधूलि मिलन की बेला
कलरव जनरव का मेला
सन्ध्या रजनी शशि तारक
मिल खेल नियति ने खेला
पाषाण विश्व – अन्तर में
क्षय भव्य भुवन अम्बर में
जीवन- सरिता के तट पर
अवशेष चिन्ह हैं कर में
सन्ध्या आँचल लहराती
फिर विभावरी मुस्काती
हिमकर की द्रुतगति किरणे
नर्तन कर विरह सुनाती
नदियों की कलकल तीरे
अञ्चल वसुधा ने चीरे
आह्लादित गुञ्जित प्लावित
जीवन हो धीरे – धीरे
मधुऋतु- मन शान्ति न पाता
यदि पतझड़ कभी न आता
सौरभ पराग क्षय हो यदि
मधुकर उन्माद न लाता
जब सघन तिमिर छा जाता
रवि सप्तरथी ले आता
उत्साह नवल भर मन में
फिर जग -सरोज मुस्काता
पतझड़ में भी हर्षाता
पीयूष – प्रेम वर्षाता
जग को सन्देश जताने
मधुऋतु बनकर आ जाता
अविरल कलियों का आना
आकर उनका मुरझाना
नव रंग – मञ्च में रञ्जित
जीवन अभिनय कर जाना
चिर- प्रकृति सुधा बिखराती
अगणित जीवन गुञ्जाती
माझी बिन सूनी नौका
भव – झञ्झा में फँस जाती
मन – मौन मुखर हो गाये
शशि स्निग्ध चाँदनी लाये
रवि दे आशीष जगत को
तिमिराञ्चल में सो जाये
दुर्गम पथ सुगम बनाकर
विपरीत प्रकृति के जाकर
गर्वित होता इठलाता
उन्नति – ध्वज को फहराकर
अपलक निहार कर चेता
संग्रहीभूत कर लेता
सुधियों सुमनों का अर्चन
जीवन अर्पण कर देता
अद्भुत नीलाभ हमारा
ज्योतित आभासी सारा
जल थल नभ सचराचर में
बह रही प्रेम की धारा
रवि – कुल अनन्त अभिसारा
मञ्जुलमय रूप तुम्हारा
चिर तिमिर शिखरतम नभ के
उर में प्रदीप्त दृग – तारा
माना भव अनत चपलता
सीमित होती चञ्चला
यदि हिय संकल्प सबल हो
नत होती प्रकृति प्रबलता
प्रिय ! शाखाओं का घेरा
तब सुन्दर बना बसेरा
जनरव सुदूर निर्जन में
तरु सखा बना है मेरा
जल थल नभ में इठलाता
लघु ज्ञान किन्तु है ज्ञाता
लख विकट प्रकृति निर्ममता
भयभीत अहं चुक जाता
नीलाम्बर में लहराऊँ
सतरंगी पंख सजाऊँ
जीवन के शून्य गगन में
बनकर विहंग उड़ जाऊँ
सुमनों के सँग इठलाऊँ
रँग-रञ्जित पर लहराऊँ
भावों के हृदयाँगन से
कल्पित नभ में उड़ जाऊँ
नीलाञ्चल में लहराता
सौरभ – पराग बिखराता
अपलक निहार कर नर्तन
मैं सूर्य – मुखी बन जाता
मधुरिम मधुऋतु लहराये
सरगम नव वाद्य सजाये
फिर सप्त सुरों में कोयल
जीवन संगीत सुनाये
हिय में नित नव अभिलाषा
कुण्ठित प्रतिपल प्रत्याशा
द्रुत- गतिज ग्रसित जीवन के
भव – पथ पर सघन कुहासा
गोधूलि सदृश लहराती
रञ्जित रजनी सो जाती
पपिहा-करुणित प्रतिध्वनि भी
थक लौट क्षितिज से आती
अम्बर अनन्त शशि तारे
अगणित अभिलास निहारे
मम विकल निशा-दृग-जल के
अवशेष चिन्ह हैं सारे
खो गई सरित की धारा
सूखा भू- कूल- किनारा
जीवन की प्यास बुझाने
भटका ले घट जग सारा
रँग-रञ्जित ताल किनारा
अनुपम सुरम्य अभिसारा
नौका विहार जल-क्रीड़ित
देशाटक जगत हमारा
सर्पिल कलकल जल – धारा
परिदृश्य मनोरम न्यारा
जल-थल-नभ-चर भू प्लावित
किसलित हरीति जग सारा
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