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16 Jan 2019 · 6 min read

अश्रुनाद नवम सर्ग ‘ अध्यात्म ‘ एवं दसम् सर्ग ‘ विविध ‘

अश्रुनाद

जीवन में सुख – दुःख सहती
चेतना हृदय में रहती
चञ्चलता सतत जगत की
सरिता सम कल-कल बहती

चौदहो भुवन में माया
फिर लौट धरा पर आया
प्रमुदित पुलकित मन पाकर
वह सम्मुख मञ्जुल छाया

अनुपम आह्लादित घेरा
तुममें सञ्चित है मेरा
अन्तर्मन में जो चित्रित
कण – कण है चित्रण तेरा

जीवन में तम गहराता
फिर प्रेम – दीप जल जाता
जग का भी प्रबल प्रभञ्जन
लौ किञ्चित बुझा न पाता

अश्रुनाद

लौ महामिलन की लेते
कितने जीवन जी लेते ?
आशा में पूर्ण मिलन की
अभिलाषु गरल पी लेते

त्रैलोक्य पार से आया
मनमोहन रूप सजाया
भर ज्योति प्रेम की मन में
जग को ज्योतित कर पाया

यह रड़्ग – मञ्च जग सारा
अभिनय करते सब न्यारा
भव- सेतु बनी चिर- कालिक
सुरसरि माँ ! पावनि धारा

सड़्गीत वही अभिरञ्जित
सुर , वादन , गायन गुञ्जित
अनु – राग रागिनी नर्तन
जीवन अभिनय नव रञ्जित

अश्रुनाद

अविरल सुमनों का आना
आकर उनको मुरझाना
जीवन के चिर अनुक्रम में
जग को सुरभित कर जाना

अन्तर भू के अँकुराया
फिर बन तरुवर बौराया
सहकर आघात प्रकृति के
सुफलित सुरभित हो पाया

कञ्चनमय कामिनि काया
ब्रह्माण्ड छोर से लाया
फिर छलनामयी जगत में
किञ्चित अधिकार न पाया

जीवन अनन्त अनुक्रम में
चिर- कालिक अन्तर तम में
भटका चौदहो भुवन तक
जग – मरीचिका के भ्रम में

अश्रुनाद

जीवन अनन्त घट – वासी
जड़ – चेतन सतत प्रवासी
गतिमान सृष्टि का कौतुक
शुचि – प्रेम अमर अविनाशी
अद्भुत संसार बनाया
चिर काल – चक्र की माया
शिव जी भी मिटा न पाये
शशि के कलड़्क की छाया

कौतुकमय निर्मित माया
अनुपम मृदु कञ्चन काया
चर-अचर जगत अणु-कण में
शशि राहु – केतु सम छाया

चिर सुमति- कुमति उर – धारा
थिर प्राप्य प्रकृति के द्वारा
शुचि- भाव प्रवाहित हिय, तब
अकलड़्कित जीवन सारा

अश्रुनाद

मद भर परिहास उड़ाता
नीलाम्बर में इठलाता
लघुता – नत प्रभुता पाकर
उन्नत शिखरों तक जाता

हम आदि – अनादिक जाया
अग-जग व्यापक तब माया
अन्तर में ब्रह्म जगत के
मधुरिम मनोज हर्षाया

मुरली की मधुरिम तानें
छेड़ी कानन कान्हा ने
त्रैलोक्य अचर – चर झूमे
सुद – बुध खोई श्यामा ने

गुरु , मात – पिता हरि वाणी
अनुसरणित हिय शुभ जानी
अनुग्रह सुरसरि सम पावनि
कलि – मल तारक भव – प्राणी

अश्रुनाद

अभिव्यक्ति मधुर परिभाषा
अवलम्ब मृदुल अभिलाषा
पढ़-लिख सम तद्उद्भासित
भारत – प्रिय हिन्दी भाषा

जीवन – क्रम में घटवासी
कल – कल प्लावित जग वासी
सुख-दुख रञ्जित चिर-कालिक
दिग्भ्रमित रहा अविनाशी

सिर धर घट – घटक बढ़ाता
दुर्गम मरुथल भटकाता
जीवन मरीचिका बनकर
जल – राशि सदृश भरमाता

घट अघम भरा तब चेता
जीवन पावन कर लेता
समिधा अन्तर दुष्कृत को
होता आहुति कर देता

अश्रुनाद

जब भक्ति धरातल पाये
हिय सञ्चित निधि ले आये
श्रृद्धा , विश्वास , समर्पण
मन – मन्दिर भव्य बनाये

चौदहो भुवन तक भागा
तन – मन जीवन – धन त्यागा
नयनाभिराम हो चञ्चल
भटका त्रिलोक मन – कागा

प्रति जीव – जगत अविनाशी
अस्तित्व विपुल घटवासी
समरूप भाव हो मन में
सच्चिदानन्द अभिलाषी

ब्रह्माण्ड छोर से आना
क्रमशः जीवन पा जाना
गतिमान सृष्टि त्रिभुवन में
किसका कब कहाँ ठिकाना ?

अश्रुनाद

कलिमल जनरव जग सारा
चर – अचर भुवन भव तारा
स्वर्गड़्गा भू शिव लट से
चिर पतित पावनी धारा

हिय सम अनुभूति जगाती
वसुधा कुटुम्ब बन जाती
जग धन वैभव निज भुजबल
शोभा सहिष्णु तब पाती

ब्रह्मांश – पिण्ड सम काया
अनुवांशिकता की माया
भू नीर अनल नभ मारुति
जग – जीवन में चिर – छाया

हिय निराकार प्रति छाये
मन मञ्जुल रूप सजाये
साकार नील – अञ्चल में
तब मूर्ति मधुर बन पाये

अश्रुनाद

अद्भुत विराट की माया
अणु – कण में स्वयं समाया
भौतिक नियमों में बँधकर
कौतुकमय जगत रचाया

त्रैलोक्य पार से आये
अगणित। भव – जीवन पाये
समुचित चिर-प्राणि जगत को
धन – धान्य सतत मिल जाये

ब्रह्माण्ड ब्रह्म की माया
निःसीम शून्य घट छाया
निःरचित स्वयं ने रच दी
फिर लघु – विराट की काया

अणु – कण में ब्रह्म समाया
नश्वर जग , जीवन माया
रत भौतिक लोलुपता में
किञ्चित शठ समझ न पाया

अश्रुनाद

तन्मय हो दीप जलाऊँ
हिय शलभ -आस भर लाऊँ
सम्पूर्ण मिलन की लौ में
जीवन अर्पण कर जाऊँ

करुणाकर ! मुझे उबारो
शठ पतित अघम को तारो
सारथि बन जीव – जगत के
भव – सागर पार उतारो

जग लोभ – मोह मद छाये
भव – सिन्धु पार करवाये
यम-नियम योग – बल तप से
जब सुप्त ग्रन्थि जग जाये

भव – सागर पार उतारो

जग लोभ – मोह मद छाये
भव – सिन्धु पार करवाये
यम-नियम योग – बल तप से
जब सुप्त – ग्रन्थि जग जाये

भौतिक लोलुप ने घेरा
कर भक्ति हृदय चिर डेरा
किञ्चित अविलम्ब न होता
जब जागे तभी सवेरा

अश्रुनाद

कौतुक ब्रह्माण्ड सजाया
अगणित जीवन ले काया
मैं ! समय – चक्र चिर – दृष्टा
भव आदि – अनादिक माया

अश्रुनाद
…. दसम् सर्ग ….
…. विविध ….

तन – मन उमड़्ग की होली
सतरड़्ग अड़्ग लग टोली
उड़ते विहड़्ग बन नभ में
छलके सुमनों की झोली

जगमग प्रभात कर जाता
अञ्जुलि भर नेह लुटाता
फिर तम- अञ्चल में सोकर
रवि जीवन – क्रम पा जाता

जग रवि प्रदत्त सत – फेरे
रँग – रञ्जित सुखद घनेरे
हिय – पटल रँगोली सजती
तूलिका नवल से मेरे

अश्रुनाद

सुख , पाप – पुण्य जीवन के
निज माप – दण्ड हैं मन के
चिर राग – द्वेष कलि कालिक
मानस विकार जन – जन के

मरुथलमय जीवन पाया
तन तपन सघन गहराया
प्रिय ! दर्श सुखद सुन्दरतम
बन शीतलता प्रति – छाया

रवि – मकर दूर जब जाये
तब शीत लहर बन छाये
कम्पित अञ्चल हो हिय का
सुधि – अनल ताप भर लाये

ब्रह्माण्ड अगम्य अपरिमित
अभिलाषाएँ निःसीमित
चिर – प्रेममयी जीवन की
लघु वयस बनी क्यों सीमित?

अश्रुनाद

आलिप्त मञ्जुमय छाया
अस्तित्व जगत की माया
चिर -विलग विवश जीवन में
क्षण दुखद विदा घिर आया

नित अथक श्रमिक श्रम कर के
हिय – भूमि उर्वरक भर के
आनन्दित सत – सुख पाता
वह क्षुधा जगत की हर के

हिय आस सुखदतम गहरी
गूँजे जग बम – बम लहरी
जल थल नभ के तुम तारक
जय नमो – नमो हे ! प्रहरी

नित सतत अथक अठ पहरी
जल सजग गगन थल प्रहरी
भरकर सहस्त्र गज-बल, तब
गूँजे जन – गण – मन लहरी
अश्रुनाद

जीवन बन्धन जग – जाये
सम्बन्ध स्वयं भटकाये
माया प्रमाद दिग्भ्रम से
लोगों की मद – छलनायें

भावों का मौन समर्पण
तन – मन – जीवन – धन अर्पण
प्रमुदित निश्चल अभिरञ्जित
पुलकित लोचन सतवर्षण

सत्कर्म फलित सौभाग्यी
दुष्कर्म सतत दुर्भाग्यी
अधिकार कर्म सम्पूरक
कर्तव्यनिष्ठ प्रतिभाग्यी

रस – बूँदें घन बिखराता
भर नव उमड़्ग हिय लाता
ममता के स्नेह – कवच में
भावी जीवन मुस्काता

अश्रुनाद

बलिदानी ध्वज फहराया
हिय देश – प्रेम लहराया
नन्हों की किलकारी में
भावी भारत मुस्काया

अभिलाषाएँ हर लेते
सर्वस्व लुटाकर चेते
सच्चे – झूठे फिर सपने
जीवन में रँग भर देते

नित नव आमोद मचलना
परिकल्प प्रमोदित सपना
स्वच्छन्द रमण हो जिसमें
अभिरञ्जित जीवन अपना

जब जीवन – तम गहराये
नव प्रात आस बिखराये
प्रिय ! दर्श सुखद हिय रञ्जित
तन – मन उमड़्ग भर लाये

अश्रुनाद

सन्देश – प्रेम पँहुचाया
फिर फुदक हरख हर्षाया
भौतिक विकास ने हर ली
कोमल कपोत मृदु – माया

नित कर्म करें उपकारी
सब धर्म बनें हितकारी
सत सुन्दर शिवमय रँग दो
हो नेह भरी पिचकारी

मैं क्यों अपड़्ग कहलाऊँ
निज पग से भाग्य बनाऊँ
सड़्कल्प सुदृढ़ भर मन में
दुर्भाग्य , नियति झुठलाऊँ

नित नव कौशल कर जाता
जग – कौतुक से हर्षाता
कोमल मुख किलकारी से
वात्सल्य – सुमन खिल जाता

अश्रुनाद

शिव , राम , कृष्ण श्री पावन
जन – जन के पाप नसावन
दिग्भ्रमित दम्भ कौतुक से
भौतिकता लोक लुभावन

भय भव – नर्तन करवाता
तब क्षुधा – उदर मिटवाता
ले दण्ड मदारी डमरू
जग – शाखामृग नचवाता

मैं कभी अश्व बन जाऊँ
उड़ता विहड़्ग कहलाऊँ
अभिनव जीवन जड़ – चेतन
अस्तित्व गतिज से पाऊँ

मन मञ्जुल दीप जलाता
कल्पित प्रतिबिम्ब बनाता
अनुभूति तूलिका से फिर
अभिनव चित्रण बन जाता

अश्रुनाद

जन्मों के अविरल फेरे
वह भव्य भुवन भव घेरे
पाषाणपुरी में चिन्हित
अवशेष शिला – पट मेरे

शशि कोण – बिन्दु कर लाये
अभिनय कर हिय सुख पाये
भौतिकी असीम अपरिमित
गोचर कौतुक बन जाये

बल , अति विवेक विज्ञानी
शुचि अटल भाष्य मृदु वाणी
मन वचन कर्म सद – भावी
गर्वित ललाट अभिमानी

तन रञ्जित सुभग सजाये
मन पुलकित रुन – झुन गाये
कलि – काल क्षणिक जीवन में
भव रूप – रड़्ग खो जाये

अश्रुनाद

तन – मन जीवन – धन अर्पण
राधा का शुचित समर्पण
श्री – मोहन चिर सम्पूरक
भव – कर्मों का सम – दर्पण

घृत – प्रेम – दीप भर लायें
मिल सहज हृदय हर्षायें
कोटिक हों ज्योतित जग में
दीपक तो एक जलायें

अनुभूति भाव रस – धारा
शब्दों ने सहज सँवारा
कृति “अश्रुनाद ” हो ज्योतित
जैसे नभ में ध्रुव तारा

Language: Hindi
489 Views
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