” अशान्त “
“अशान्त”
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आज मन की
बगिया उचाट है,
कशमकश भी जारी
है विचारों में!
अन्तर्मन उद्विग्न है
चेतना निर्लिप्त है,
मन की कलियाँ सुषुप्त है
सासों की धुकनी प्रज्वलित है!
सोचता हूँ कुछ लिखूँ
पर क्या लिखूँ ?
उसका रंग रूप क्या हो
विचारों में अंतर्द्वंद है!
सोचता हूं कविता गढू
पर क्या यह अकविता नही होगी,
अल्फाजो के मोती गढू
पर पिरोने की लड़ियाँ कहाँ से लाऊँ?
कवि को क्या कहूँ
उपमा भी ऐसी देते हैं,
कुड़ी को तितली बना दे,
और चाल को नागिन तो
कभी हिरनी कह देते है!
सोचता हूं फिजाओं से
रंग चुराके कल्पना को उड़ान दू,
जो ख्वाबों की ताबीर है
उस हुस्न को उन रंगों से सजा दू!
क्या मोहब्बत के रूप वही है
नहीं तो फिर अक्स बदल गये,
एक नज़र का प्यार कहाँ गया
क्या अब बाजारों की शोभा वही है?
क्या कहूँ किससे कहूँ
कोई सुनता कहाँ मेरी,
मेरे अल्फाजो में कशिश कहाँ
इसलिए मौन हूँ,विस्तीर्ण शून्य हूँ !
*****सत्येन्द्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी) *****