अविरल
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
🎀 अविरल 🎀
मन के सन्तापों को कब चैन मिला जग में
ये उतना ही था भटका जितना घूमा जग में ।।
पल पल भरमाया देख देख इसकी माया
संतर्पण को लेकर था भृमित आत्म किसमें ।।
ये काल कपाल भृकुटी मण्डपमा
नल नील निकन्दन बृज के वासी ।।
माला उलझ गई जब माला में
बिखरे मोती सगरे जग में ।।
मन पागल भौंरा डोल गया
तन सुधि न रही किसी के बस में ।।
सीता डूबी विरहन से मृग
स्वर्ण गयो छल बुद्धी को ।।
राम पठाये निज स्वार्थ को
वाके पीछे भ्राता लछ्मन को ।।
जनक दुलारी अजोधा की महारानी
ठगी गई साधु भेस लख रावण को ।।
अब कोस रही कर कर विलाप
न देख सकी कटु भावन को ।।
मन के सन्तापों को कब चैन मिला जग में
ये उतना ही था भटका जितना घूमा जग में ।।
पल पल भरमाया देख देख इसकी माया
संतर्पण को लेकर था भृमित आत्म किसमें ।।