अविनश्वर हो यह अभिलाषा
अविनश्वर हो यह अभिलाषा —
मिटे न प्यास, रहूँ चिर प्यासा
अपलक तेरी ओर निहारूँ
तुझ पर अपना जीवन वारूँ
हारूँ अगणित बार भले,पर
अपनी हार नहीं स्वीकारूँ
घेरे मुझे न कभी हताशा
जाऊँ भूल हृदय की पीड़ा
सुख—दुख, पाप—पुण्य की क्रीड़ा
खोलूँ परत—दर—परत अनुक्षण
तेरे सम्मुख अपनी व्रीड़ा
रचूँ प्रेम की नव परिभाषा
तू रूठे, मैं तुझे मनाऊँ
तुझको गाकर गीत रिझाऊँ
तेरे चरण—कमल की रज मैं
निज मस्तक पर नित्य लगाऊँ
मिटे न कभी मिलन की आशा
— महेशचन्द्र त्रिपाठी