अल्फाज़ की ख़ातिर
कागज़ हर दर्द समेटते रहे ।
हम बस लकीरें खिंचते रहे ।
कुछ अल्फाज़ की ख़ातिर,
जज़्बात से मेरे खेलते रहे ।
सो गई रंगीनियाँ महफ़िल की ,
ता-रात चराग़ से हम जलते रहे ।
दूर न थीं रौशनियाँ फ़जर की,
ईशा के साथ हम चलते रहे ।
….विवेक दुबे”निश्चल”©