अलगाववादी
काश्मीर में बरस रहे हैं, पत्थर फौज-रिसालों पर,
सत्तलोभी मस्त कलंदर, खुश हैं अपनी चालों पर|
जाता है तो जाय भाड़ में, देश हमारा क्या जाता,
रहे सलामत कुर्सी इनकी, सुर्खी इनके गालों पर|
दूर हुई है कुर्सी जिनसे, पी-पी पानी कोस रहे,
फौजों को भी नहीं छोड़ते, थू-थू मुए जवालों पर|
फेक रहे हैं जो भी पत्थर, बेकसूर कठपुतली हैं,
लिए हाथ में संग, निकल पड़ते हैं चंद निवालों पर|
जो प्रथक्कतावादी हैं, उनकी तो पांचों घी में हैं,
मौज उड़ाते इधर स्वदेशी, उधर विदेशी मालों पर|
लगा गाँज में आग, महाजन दूर खड़े इतराते हैं,
चतुर लोमड़ों सा जवाब देते हैं नेक सवालों पर|
इनकी तो औलादें करतीं, मौज विदेशों में रह कर,
संग फेकने का जिम्मा आ पड़ता भोले-भालों पर|
कब तक आखिर कब तक देगा, काश्मीर कुर्बानी यूं,
क्यों अलगाववादियों को, चिनवाते नहीं दीवालों पर?
क्या कुर्सी का कर लोगे, जो काश्मीर बर्बाद हुआ,
बैठ तख्त पर राज करोगे, क्या फिर नरकंकालों पर?
राणा की औलादें होकर, क्यों श्रगाल से डरते हो,
थोड़ा तो एतमाद करो, तुम सवा अरब मतवालों पर|
देर इशारे भर की है, सेना के वीर जवानों पर,
पल में मुशकें बांध नचाएं, इनको अपनी तालों पर|
कल जाती थी, आज चली जाए, कुर्सी तुम ठानो तो,
चन्दन सा तुम्हें लगाएगा, हर कोई अपने भालों पर|