अर्थी से चिता तक भाग 2
अर्थी चली थी घर से अपने अंतिम सफर पर
अपनों के और दोस्तों के कांधों पर चढ़ कर
पिता की अर्थी घर से शमशान पहुंचा दी गई
अर्थी को जलाने को लकड़ियां भी लाई गई
पिता के शव को अर्थी से उठा चिता पर लिटा दिया
अर्थी से चिता का फासला सैकंडो में मिटा दिया
जिस सीने पर सिर रख बचपन अपना बिताया था
आज उसी को अपने हाथों चिता पर लिटाया था
उसी सीने पर एक मोटी सी लकड़ी रख दी गई
मिनटों में ही पिता की चिता सजा दी गई
साथ में रहने वाला बेटा जार जार रो रहा था
पिता संग बिताया हुआ हर लम्हा सता रहा था
हाथ में पकड़ी अग्नि अब मुखाग्नि की तैयारी थी
आंखों से अश्रु की धारा अब भी अविरल जारी थी
काल चक्र था और मुखाग्नि देना भी जरूरी था
बहुत मुश्किल था पर निर्णय लेना भी जरूरी था
जीते जी जिसको कभी चोट नही पहुचाई थी
आज अग्नि देने की ये दुखभरी घड़ी आई थी
कांपते हाथों से मुखाग्नि की रस्म निभाई थी
चिता की अग्नि की तपिश दूर तलक आई थी
जिसने हमको पाला पोसा उसे यूं छोड़ आये हैं
अलविदा उन्हें कह कर यादें संग ले आये हैं