अरे मूढ़ मन
अरे मूढ़ मन!
इतना हठी न बन
ऐसी चंचलता भी ठीक नहीं
व्यर्थ क्यूँ सामर्थ्य का दहन करता है
कभी कंदराओं में
कभी अट्टालिकाओं पर
कभी कलकल बहती सरित् की धाराओं में
कभी एकांत प्रिय वनचरों के निकट
यूँ भटकना तेरा सही नहीं
अरे! क्या तुझे अपने कर्म पर
शर्म का बोध नहीं होता
कभी उलझ जाता है तू
किसी नायिका के
भुजंग से लहराते केशों पर
कभी व्यर्थ प्रलाप करता है
विरह की वेदना में
नहीं ये उचित नहीं है
बांधता क्यूँ नहीं तू स्वयं को
एकाग्रता की डोर में
क्यूँ नहीं करता चिंतन
भूत और भविष्य का
देख मित्र! कर्म ही सुवासित होते हैँ
जीवन की इस बगिया में
यदि कर्म पुष्प कुम्हला गए
तो क्या अर्पण कर पाऊँगा
अपने इष्ट के सामने
मैं कौन सा मुख दिखाऊँगा
सँभल औ’ सँभाल मुझे
इस बंधन से निकाल मुझे
चल मेरे साथ मित्र
पग से पग मिला तो तू
सद्गुणों के कुसुम से
ये जीवन बगिया खिला तो तू
अ मेरे मन चल कोई
कर्म ऐसा हम करें
परिवार और ये जगत
गर्व हम पर करे
देख तुझे साथ मेरे चलना होगा
अन्यथा फिर साथ तेरे
मैं निर्मम हो जाऊँगा
निरंकुशता मैं तेरी
मूढ़ सहन न कर पाऊँगा
माया इक भ्रम है
छोड़ इसका साथ तू
उस पिता के ध्यान में
चल आ स्वयं को साध तू
देख तेरे साथ ही
हार भी मेरी जीत भी
अब मनन करना तुझे
उचित क्या अनुचित क्या
सोनू हंस