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11 Aug 2020 · 4 min read

विवेक भैया

उनसे मेरी मुलाकात एक परिचित के माध्यम से हुई थी। वो उनके यहां अपनी शिक्षा के तहत अभ्यासिक प्रशिक्षण ले रहा था।
विवेक भैया की अपनी एक वाणिज्यिक परामर्श सेवा की संस्था थी।

परिचित से मिलने जाने पर उनसे भी अक्सर मुलाकात हो जाती थी।

बातचीत से वो एक जिंदादिल और सहज प्रवृति के व्यक्ति लगे। अभिमान उनको कहीं से भी छूकर नही गया।

सबसे दोस्ताना लहजे मे बात करने की उनकी आदत थी। बातों बातों मे ये भी पता चलता था कि सृजनशील व्यक्ति है। पुराने व्यवस्थित तरीको से काम करना उन्हें मंजूर नही था । उन्हें लीक से हट कर काम करने मे मजा आता था।

अपनी परामर्श सेवा के शुरुआती दौर मे , उनके एक मुवक्किल ने अपनी रोकड़ बही को जांचने को कहा और ये भी गुजारिश की ,कि पद्धति मे कोई सुधार की जरूरत हो तो वो भी बतादें।

बस फिर क्या था, ५-७ दिनों तक इसी काम मे वो जुट गए,

रोकड़ बही की जांच के बाद,
उन्होंने अपने ही अनूठे तरीके से नकदी और बैंक की प्रविष्टियों के साथ और भी कई व्यापारिक लेन देन की प्रविष्टियों को विभिन्न पंक्तियों और स्तंभों मे सजाकर ,जब मुवक्किल के सामने पेश किया तो वो अचरज मे पड़ गया।

बुद्धिमान और जानकर व्यक्ति था, मन ही मन उनकी सृजनात्मक सोच की सराहना की, साथ साथ ये भी सोच लिया कि ये नायाब तरीका उनके अपने लेखाकार के समझ के बाहर की चीज़ है!!!
इसलिए वो अपनी पुरानी पद्धति के हिसाब खाते पर ही डटा रहा।

उनके कई मित्र उनसे काम सीखने भी आते थे और फिर सीखकर अपने क्षेत्र मे बाद मे सफल भी रहे।

वो इन सबसे प्रभावित हुए बिना अपनी ही धुन मे लगे रहते थे।

ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर और अमेरिका मे अपनी परामर्श सेवा भी जाकर दे आते थे और कई कई महीने बाहर ही रहते थे।

मैंने भी जब अपना काम शुरू किया तो उन्होंने काफी मदद की।

परिचित, जो अब अपना काम जमा चुका था, ये कहते भी नही चुका कि अब उनमें वो बात नही रही।

उसका ये मूल्यांकन और निष्कर्ष शायद उनकी प्रतिभा को पैसे कमाने की मात्रा के साथ जोड़कर देखने का नतीजा था।

वक़्त के साथ लोगों का नज़रिया किस कदर ,पुराने प्रशिक्षण और ज्ञान को दरकिनार करके, बदल ही जाता है।

उन्हें इन सब बातों से ज्यादा सरोकार नही था। जरा ढंग से काम चल जाये , तो बस ठीक है।

मेरा दफ्तर एक ही बिल्डिंग मे होने के कारण, रोज शाम को कहते , चलो नीचे सड़क पर मिट्टी के कुल्लड़ वाली चाय पी कर आते है।

फिर वहां से मंदिर की ओर रवाना हो जाते। भगवान से मिल लेने के बाद , अपने विनोदी स्वभाव के साथ ये कहते कि ये जो रोज मंदिर जाता हूँ न्, अपने रोज के कर्मों का TDS(आय के स्रोत पर ही लगने वाला अग्रिम सरकारी कर) भगवान से कटवा लेता हूँ।

अपनी भक्ति और विश्वास को वाणिज्यिक भाषा मे कह देना उनकी विशेषता रही। फिर बरबस ही साथ वालो की हंसी निकल पड़ती।

मंदिर के बाहर बैठे गरीबों को मिठाई, ब्रेड या फल बाँट आते और कभी इस समाज सेवा को तस्वीरों मे खींच कर नही रखा।

लौटते वक्त कभी रबड़ी तो कभी भीम चंद्र नाग की दुकान से सन्देस खाकर ही लौटते। ये भी बताया कि ये कोलकाता की प्राचीनतम दुकानों मे से एक है। अब तो इस दुकान की लोकप्रियता नए जमाने मे थोड़ी धूमिल सी पड़ गयी है, पर एक जमाने मे, बाहर से आने वाले सीधे इसी दुकान का रुख करते थे।

उनकी इस बेफिक्री के पीछे उनके दादा और दादी का उदाहरण भी रहा था, जो साल मे छह महीने ऋषिकेश के आश्रम मे रहते थे और फिर बाकी के छह महीने कोलकाता मे आकर दादाजी अपना व्यवसाय संभालते थे।

एक दिन उन्होंने अपनी दादीजी का एक किस्सा सुनाया कि जब उनकी मां ने लड्डु गोपाल जी को दूध का भोग लगाया तो वो चीनी डालना भूल गयी।

दादी जी को जब ये पता चला तो वो उनपे बरस पड़ी। माँ ने जब भूल सुधार करते हुए चीनी डाल कर फिर से भोग लगाने की बात कही, तो दादीजी ने अपनी आस्था और भोलेपन से ये कहा कि भगवान तो फीका दूध पी चुके हैं आज।

अब कल ही चीनी वाला दूध पिलाना उनको।

विगत दस बारह वर्षो से सिंगापुर मे बसने के बाद,
जब कभी आते तो कहने लगते, आज कोलकाता की भीड़ भरी मिनीबस मे बैठूंगा। वो यहां आकर अपनी पुरानी आदत की भी जांच कर रहे थे कि अब भी वो ठीक वैसी ही है कि विदेश मे रहकर बिगड़ गयी है।

जिंदगी के कुछ वाकये और लोग एक दम ताज़ी बयार की तरह एक अलग एहसास दे जाते है!!!

Language: Hindi
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