अरमानों के कफ़न
चहुँओर दनुजता क्रूर भाव ले टहली!
मानवता की, दी कमर, तोङ दी पसली।
कोंपले नयी खिलने से पहले मसलीं,
पर बनी रही,बहरी दिल्ली न दहली।।
खत्म हो रहे मात-पिता के सपन।
बिक रहे बाजारों में अरमानों के कफ़न।।
नए सोपान नित नए लिख रहा है जगत।
अफ़सोस!फिर भी मानसिकता न बदली।।
ख़ामोशी से मौन के ताले जकड रहे।
दर्द को सीने में दफ़न कर सिसक रहे।
कत्ल करे पिशाच जब अपने जाये।
जाएँ कहाँ प्रश्न लेकर, बोलो दिल्ली।।
आरती लोहनी