अयोध्या नगरी
असत्य पर सत्य की विजय का पर्व बीत गया।
अन्धकार पर प्रकाश की विजय का पर्व समीप है।
और फिर आस्था का महापर्व आयेगा।
अयोध्या के उत्थान , सुन्दरीकरण और (पर्यटनगत) वैश्वीकरण का आयोजन तो खैर दीर्घकालिक है जिसके अन्तर्गत पूरी अयोध्या को दिव्य और भव्य बना दिया जायेगा। इसमें दक्ष चित्रकारों की मदद ली जायेगी और सैकड़ों मेगापिक्सल वाले कैमरे की आँखों से अयोध्या अलौकिक दिखाई देने लगेगी। अयोध्या को सँवारने की इस मुहिम को अंजाम तक ले जाने में यदि कोई अड़चन आयी तो दूसरी अयोध्या बसा दी जायेगी। यूँ भी ये काफी पुरानी है , और इसमें प्लाटिंग के विकल्प नहीं , नई टाउनशिप की गुंजाइश नहीं। और फिर सरकारें नयी चीजों में यकीन रखती हैं। नए मन्त्री , नयी नीतियाँ , नया युग और नयी अयोध्या , नहीं-नहीं नव्य अयोध्या।
हालाँकि अभी ये तय नहीं है कि युगों पुराने और प्राचीन मूल्यों के प्रतीक श्रीराम , तपस्वी शम्बूक को मारने वाले और देवी सीता को घर से निकालने वाले श्रीराम के बारे में क्या विचार है। शायद संस्कृति मन्त्रालय तय करे , या फिर इतिहास विभाग।
बहरहाल , हम पुरानी सोच के पोंगापंथी लोग , परम्परापोषक और रूढ़िवादी। न हम श्रीराम का विकल्प सोच पाते हैं , न अयोध्या का। हम हर हाल में इसी अयोध्या और इन्ही श्रीराम की दिव्यता को उद्भासित करने का हठ रखते हैं। यही हमारे मूल्य-मान का पुंज हैं , यही हमारे आराध्य हैं। होली – दीपावली कब पुराने होते हैं। ये वृद्धों के लिये पुराने होते जाते हैं और किशोरों के लिये नये। पीढ़ियों पुराना करवा चौथ नये दम्पतियों के लिये पहला और नया होता है।
हम सोचते हैं कि नव्यता कोई नयी वस्तु नहीं होती.. यह पुराने का नये के साथ सहभाव होता है , पुरातन का अधुनातन के साथ सामंजस्य होता है।
तो अपनी इसी पुरातनपंथी सोच से घिरे हम सरयू तट को वरदान की भाँति समझते हैं। गुप्तार घाट पर मुग्ध रहते हैं , और इसके स्वरूप को बिगड़ते देख दुखी होते हैं।
गुप्तार घाट पर नयी सीढ़ियां बनीं , कुछ लोग कहते हैं नया घाट बना.. तो मैं आग्रह करता हूँ कि भाई.. घाट तो श्रीराम जी के समय या फिर उसके भी पहले से है। गोप्रतार तीर्थ पंचवर्षीय सरकारों की नहीं अपितु हमारे सार्वकालिक सरकार की देन है। उसे नया घाट क्यों बताते हो।
क्या तमाशा है कि अपनी प्राचीनता के लिये प्रसिद्ध , सृष्टि की पहली और सबसे प्राचीन नगरी में नदी के स्नानीय तट का नाम नया घाट है।
न राम घाट , न सीता घाट , न दशरथ घाट , न कौसल्या घाट.. अपार जन समूह नहाने जाता है नया घाट। हमारी संवेदनशीलता इतनी भी नहीं कि इसका नाम सुधार लें और इस सबसे प्राचीन पुरी के सबसे प्रशस्त घाट को उसकी मर्यादा के अनुरूप नाम दे दें। वैसे मर्यादा के नाम से फिर चेता दें कि ये पुरी मर्यादा पुरुषोत्तम की है।
तो मर्यादा पुरुषोत्तम की इस पुरी के अद्वितीय तीर्थ (ये हम नहीं पुराण कहते हैं) गोप्रतार की ये दशा है। इसको लेकर चर्चा हो सकती है , तर्क-वितर्क हो सकते हैं। वे बड़े रोचक और युक्ति संगत भी हो सकते हैं..पर हमें फिलहाल ये सब करना सूझ नहीं रहा।
घाट पर बिखरा ये कचरा आसमान से तो बिल्कुल नहीं गिरा। सीढ़ी के पत्थर पर अपनी कुल औकात के बराबर उगली गयी गंदगी भी किसी मनुजाद की ही देन है।
घाट तक जाने वाली सड़क पर इकट्ठा असहनीय गन्दगी/कचरा भी घरों से ही निकला है।
और हाँ घाट पर बहकर धारा में गिरती हुई नाली जो अब नाला बन चुकी है , उसे भी देखने के लिये किसी अतीन्द्रिय शक्ति की आवश्यकता नहीं।
तब , जबकि रोज रंग बिरंगी बत्तियों वाली गाडियाँ गुप्तार घाट के लिये आती जाती दिखती हैं। और तब , जब आलाकमान अयोध्या की बेहतरी की चिन्ता में दुबले हो रहे हैं किससे और क्या कहा जाये।
अस्वीकरण : विनम्र भाव से स्पष्ट करना है कि किसी को लक्ष्यकर अवमानना करना उद्देश्य नहीं , पर कहीं कोई दायित्व तो बनता है। यदि गन्दगी होना रोका नहीं जा सकता तो उसे साफ तो किया जाना चाहिये। आखिर हम सब रोज गन्दा करके रोज धोते तो हैं ही।
•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••