अमित की ‘ लगन’
बिहार के गया जिले के छोटे से गांव डाबर में रहने वाले ईश्वरी खेतों में मजदूरी कर अपना पेट भरते थे। शादी हो गई, चार बच्चे हुए, लेकिन माली हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। मजदूरी से एक शाम भी भरपेट भोजन मिलना उनके परिवार के लिए बड़ी बात थी। किसी साल सूखा पड़ जाए तो इसके लिए भी लाले पड़ जाते थे। तब ईश्वरी गांव से सब्जियां लेकर मीलों दूर गया पैदल आते। इसी से अपना और बच्चों का पेट भरते। अमित उनकी चार संतानों में सबसे बड़ा है। अमित की मां किरण देवी खुद साक्षर भी नहीं थीं, लेकिन शिक्षा का महत्व समझती थीं। अमित जब थोड़ा बड़ा हुआ तो उन्होंने बिना किसी से पूछे ही उसे बगल के सरकारी स्कूल भेजना शुरू कर दिया। उनके पास स्लेट खरीदने के भी पैसे नहीं थे। करीब एक साल तक स्लेट का टूटा हुआ टुकड़ा लेकर ही स्कूल गया था। उस टुकड़े पर ही वह दिनभर वर्णमाला लिखता रहता। जैसे-जैसे ऊंची कक्षा में पहुंचता गया, पढ़ाई में उसकी लगन बढ़ती गई। छोटे से घर में दिन में पढ़ाई करना मुश्किल होता था। उसने देर रात तक पढ़ने की आदत बना ली। कई बार लालटेन में तेल खत्म हो जाता, वह निराश हो जाता। कमरे में सोई मां नींद में भी बेटे का दर्द समझ जातीं। दिल कचोट उठता था। वह पानी का ग्लास लेकर अमित के पास आ जातीं। बेटे को समझातीं-पुचकारतीं, और अगली रात वह फिर दोगुने उत्साह से पढ़ाई के लिए बैठता। उसके लिए किताब-कॉपी का जुगाड़ भी मुश्किल से होता था, पर अमित को इससे फर्क नहीं पड़ता था। जिंदगी में संघर्ष की अहमियत तो उसने स्लेट के टुकड़े से वर्षों पहले ही सीख ली थी। गांव के स्कूल में दसवीं की पढ़ाई नहीं होती थी। ईश्वरी बेटे को लेकर गया चले आए। सरकारी स्कूल में उसका दाखिला करा दिया और खुद सब्जी बेचने लगे। मां छोटे भाई-बहनों को लेकर गांव में थीं। अब वे सब भी स्कूल जाने लगे थे, लेकिन अमित के छोटे भाई से यह गरीबी बर्दाश्त नहीं होती थी। वह अक्सर दिल्ली जाकर कमाने की बात करता, जिससे परिवार को कुछ आमदनी हो सके। हालांकि, उसकी उम्र अभी इतनी नहीं थी और इसी सोच ने उसे डिप्रेशन का शिकार बना दिया। बीमार हुआ और परिवार के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि उसका इलाज करा सकें। अमित के भाई की जान गरीबी की भेंट चढ़ गई।
अमित 10वीं की बोर्ड परीक्षा की तैयारी कर रहा था। घर में बूढ़ी दादी भी थीं। उनकी कमर टूटी थी, लेकिन इलाज कहां से होता। रात को अमित पढ़ता तो दर्द से कराहतीं। पढ़ाई छोड़ वह उनकी तीमारदारी में लग जाता। सोचने लगता कि यह पढ़ाई जल्दी पूरी क्यों नहीं होती, जिससे वह बड़ा आदमी बन जाए और दादी का इलाज करा सके। किसी तरह उसने परीक्षा दी और अच्छे अंकों से पास हुआ। किसी ने सुपर 30 के बारे में बताया तो सीधे ही पिता के साथ सुपर 30 के आनंद सर से मिलने चला गया। वह संस्थान का सदस्य बन गया।
अमित अब उस पड़ाव पर था, जहां वह अपने सपनों को ऊंची उड़ान दे सकता था। वह दिन-रात पढ़ाई करता। कहता, आराम करता हूं तो मरे हुए भाई और कराहती दादी की तस्वीर सामने आ जाती है। 2014 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा के रिजल्ट के दिन वह आनंद सर के साथ ही था। चिंतित, लेकिन आश्वस्त। पिता ईश्वरी की भीगी आंखें इसके लिए मुझे धन्यवाद दे रही थीं। उन्हें अपने भाग्योदय की पहली झलक दिखने लगी थी। आज वह आईआईटी, मंडी से पढाई पूरी करके एक बहुत बड़ी कंपनी में काम कर रहा है। लेकिन इंजीनियर बनकर संतुष्ट नहीं रहना चाहता। अब वह आईएएस के लिए परीक्षा की तैयारी करेगा ताकि प्रशासनिक अधिकारी बन उस गरीबी का अंत करे जो उस जैसे करोड़ों युवाओं के भविष्य का रास्ता रोक लेती हैं।