“अमलतास बन जाते हो”
मेरे लिए अमलतास बन जाते हो,
जब मेरे वजूद पर छा जाते हो ।
स्वर्ण रश्मियों में धूल कर तुम ,
देखो निखर -निखर से जाते हो।
छूकर हवा मुझे तुम तक पहुंची ,
तुम बिखर- बिखर से जाते हो।
रात चांदनी में मैं रजनीगंधा सी ,
और तुम टूटते तारे बन जाते हो।
पीताम्बर ओढ़े कान्हा से क्यों,
तुम मुझे राधिका बना जाते हो।
चांदनी रात तुम्हे देख मैं पीली
और तुम श्वेत बन जाते हो।
मेरे लिए अमलतास बन जाते हो,
जब मेरे वजूद पर छा जाते हो ।
— डा० निधि श्रीवास्तव “सरोद”