अमर गीत “आएगा आने वाला” व “महल” से जुड़ी त्रासदियाँ
जी हैं, शीर्षक से सही पहचाना आप सबने। मैं ज़िक्र कर रहा हूँ “महल” (1949) की फ़िल्म का। जिसके निर्देशक थे कमाल अमरोही। संगीतकार थे खेमचन्द प्रकाश। चार गीत (नक्शब जारचवी) लिखे थे, जिन में से दो गीत बेहद मक़बूल रहे। {(1.) “आएगा आएगा आएगा आने वाला”, तथा (2.) “मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना”) (3.) घबरा के जो हम सर को टकराये तो अच्छा हो। (राजकुमारी के स्वर में); तथा (4.) ये रात फिर न आएगी (छुन- छुन घूँघरवा बाजे) [स्वर: जोहराबाई व राजकुमारी]} बाक़ी गीत पण्डित केदार शर्मा ने लिखे थे। फ़िल्म का संगीत अत्यंत कर्णप्रिय है। फ़िल्म के प्रमुख गाँनो मैं “आएगा आएगा आएगा आने वाला, दीपक बिन कैसे परवाने जल रहे हैं, कोई नही चलाता और तीर चल रहे हैं” आज भी ध्यान आकर्षित करता हैं। फ़िल्म में एक मुजरा ” ये रात बीत जाएगी, जवानी फिर नही आएगी” तब के दौर को प्रस्तुत करता हैं। “मुश्किल है बहुत मुश्किल” कामिनी की मनोस्थिति को बेहतर अभिव्यक्ति देता हैं। आदिवासी कबीलाई नृत्य “हुम्बाला” का भी शानदार कोरियोग्राफी की गई हैं। “जो हम पर गुजरनी है, गुजर जाए तो अच्छा हो” रंजना के दर्द को बेहतर प्रस्तुत करता हैं। ” दिल ने फिर याद किया” कामिनी के इन्तेजार को बयां करता हैं। अशोक कुमार बेजोड़ थे व उनकी अभिनय क्षमता अतुलनीय थी। मधुबाला ने अपना किरदार बहुत खूबसूरती से निभाया था। फ़िल्म को देखना एक युग को जीना हैं । तीव्र गति की यह ब्लेक एन्ड व्हाइट फ़िल्म आपको बहुत पसंद आएगी। ख़ैर ‘महल’ फ़िल्म मैंने अपनी किशोरावस्था में 1989 में देखी थी, मगर इसका असर आज तक ज्यूँ का त्यूँ बना हुआ है। कमबख्त ऐसा नशा है कि, न कभी थोड़ा कम होता है! न कभी पूरी तरह से उतरता है! मेरा ही एक शेर है :—
तसव्वुर का नशा गहरा हुआ है
दिवाना बिन पिए ही झूमता है
जैसे मेरी निगाहों और दिमाग़ से गुज़री कई साहित्यिक कृतियाँ हैं। जिनका जादू सिर चढ़कर बोलता है। जैसे भगवती चरण वर्मा जी की अजर-अमर कृति “चित्रलेखा” (पाप-पुण्य की विचित्र गाथा); आचार्य चतुरसेन की “आलमगीर” (हिन्दी-उर्दू की शैली का अदभुत मिश्रण है इस उपन्यास में); मोहन राकेश की कहानी “मलबे का मालिक” (विभाजन की त्रासदी पर इससे श्रेष्ठ रचना शायद ही किसी ने लिखी हो। पचासियों दफ़ा इस कहानी को पढ़ा है मगर इसका जादू हर बार कोई बेहतरीन कृति पढ़ने जैसा है।); धीरेन्द्र अस्थाना जी हिंदी कथाओं के एक और सिद्धहस्त कालजयी रचनाकार हैं, उनकी रचना “नींद से बाहर” (मौजूदा दौर की कड़वी सच्चाइयों को इतनी मज़बूती से काग़ज़ पर रखता है की पाठक बस पढता चला जाता है।) दिमाग़ की नसों को जमा देने वाली पंजाबी कवि “पाश” की कवितायेँ हों या मिर्ज़ा असदुल्लाह के “दीवाने-ग़लिब” का जादू ताकयामत तक कम नहीं होगा। कुछ ऐसा ही अहसाह जुड़ा है ‘महल’ (1949) की फ़िल्म से! क्या कहानी थी? एक गुमनाम व्यक्ति द्वारा यमुना किनारे बनवाये गए “संगम महल” में पैदा हुई प्रेमकथा। इक रोज़ उसको बनाने वाला डूब जाता है, लेकिन वह वापसी का वादा करता है और उसकी प्रेमिका “कामिनी” (मधुबाला) उसके न ख़त्म होने वाले इन्तिज़ार में दम तोड़ देती है। इत्तेफ़ाक़ देखिये चालीस बरस बाद सरकारी नीलामी में जो शख़्स हरिशंकर उसे ख़रीदता है। वह महल में एक तस्वीर देखकर दंग रह जाता है, क्योंकि वह हूबहू उसके जैसी है। महल में हरिशंकर (अशोक कुमार) एक साया (मधुबाला) देखता है । अपने दोस्त की सलाह पर वह उस महल को छोड़कर वापस शहर चला जाता है। हरि वापस उस साये की कशिश में महल में लौट आता है। हरि का वकील दोस्त श्रीनाथ हरि को उस साये से दूर रखना चाहता है तब साया वकील को चेतावनी तक दे देता हैं। वकील मित्र हरिशंकर का ध्यान महल से हटाने की पुरजोर कोशिश करता है लेकिन हरिशंकर साये का पीछा जारी रखता है। साया हरिशंकर को जान देने पर उकसाता है तो भी हरि तैयार हो जाता है। साया हरि को एक जान लेने के लिए तैयार करता है ताकि हरि से मिलन हो सके। हरि इसके लिए भी तैयार भी हो जाता हैं। इससे पहले की हरी कुछ कर गुजरे हरि के पिता और श्रीनाथ उसे शहर ले आते हैं। महल में कामिनी का साया तड़पता है और हरिशंकर का इंतजार करता हैं। हरिशंकर की शादी रंजना (विजयलक्ष्मी) से हो जाती हैं। हरिशंकर रंजना को लेकर वीरानों मैं चला जाता है। रंजना की हैरानी-परेशानी में 2 वर्ष गुजर जाते है लेकिन उनके बीच दूरियां बढ़ती जाती हैं। रंजना की दुश्वारियों में रोज़ इजाफा होता जाता हैं। रंजना आखिरकार उस दीवार को पहचानना चाहती है जो उसके ओर हरिशंकर के बीच खड़ी होती हैं। हरिशंकर अंततः पुनः महल लौटता है अपनी मुहब्बत पाने। इस बार रंजना भी उसके पीछे संगम भवन पहुच जाती हैं। रंजना पुलिस थाने पहुचकर हरिशंकर की बेवफाई की रिपोर्ट करती हैं और जहर खा लेती है। पुलिस हरिशंकर को गिरफ्तार कर लेती हैं। इसके बाद बहुत से राज खुलते हैं। फ़िल्म के अंत में मालिन ही कामिनी निकलती है जो कि दरअसल आशा (मधुबाला) है। आशा कोर्ट में अपनी कहानी सुनाती है जिसे सुन कर दर्शक दंग रह जाते है। फ़िल्म में महल का सेट बहुत सुंदर बनाया गया था जिसे देखकर उसमे कुछ लम्हे गुज़ारने की इच्छा हर किसी के दिल में बलवती होती है। फ़िल्म में पुराने दौर की रेलगाड़ी को देखना एक अत्यंत सुखद अनुभव हैं।
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“महल” के गीतकार नक्शब (उम्र महज़ 42 वर्ष जिए) के बारे में:— जैसाकि नक्शब जारचवी के नाम से ही ज़ाहिर है उनके पुरखे जारचा गाँव से थे। यह उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले का एक छोटा-सा गाँव है। नक्शब ने जब फ़िल्मी गीतों में अपने भीतर के शा’इर को फ़िल्मी परदे पर उभारा तो अपने नाम के साथ अपने पुश्तैनी गाँव को जोड़ा। उन्हें पहली बड़ी सफलता व पहचान “जीनत” (1945) की फ़िल्मी कव्वाली “आहें न भरे, शिकवे न किये” से मिली। इसे मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ और जोहराबाई अम्बाले वाली की आवाज़ों ने अजर-अमर कर दिया। आज़ादी के साथ हिंदुस्तान का पाकिस्तान के रूप में बटवारा बड़ी दुःखद घटना थी। ये ऐसा बटवारा था जिसने भारतवर्ष की कला-संस्कृति को हिंदी उर्दू के अलग सांचों में बाँट दिया। पाकिस्तान ने उर्दू को क्या अपनाया कि हिंदी को लगभग भुला ही दिया। मियां की तोड़ी, ठुमरी और जितने भी ठेठ हिंदी में गाये जाने वाले राग थे, नफ़रत और मन-मुटाओ ने सबको अपनी हदों में बांध दिया। कई बेहतरीन कलाकार हिंदुस्तान से पाकिस्तान चले गए। कई पाकिस्तान से हिंदुस्तान आ गए। आज भी जब कहीं दंगे होते हैं तो लगता है यह वही नफ़रत है जो विभाजन की लकीर से शुरू हुई और अभी तक चल रही है। नक्शब अपनी उपेक्षा से खिन्न होकर 1958 में पाकिस्तान चले गए। यहाँ उनके हिस्से में कुल जमा छः फ़िल्में थीं। शमशाद इलाही अंसारी “शम्स” के आलेख के अनुसार पाकिस्तान में नक्शब के विषय में जानकारी मिली वो इस प्रकार है:—”मेरे टोरोंटो निवासी मित्र अनवर हाशिम जो पाकिस्तान से ताल्लुक रखते है, से कुछ और जानकारियाँ मिली है, जिसके मुताबिक मौलाना माहिर उल कादरी की किताब “यादे रफ़्तग़न” में नक्शब जारचवी पर बाकायदा तफ़सीली खिराज़े अकीदत छपी है। उनसे जुडे उनकी फ़िराखदिली के किस्से बहुत गर्दिश करते हैं. एक साहब रात में नक्शब के घर मुलाकात के लिये गये कि अगले दिन उन्हे पढाई के लिये विलायत जाना था, नक्शब साहब को बडा बुरा लगा कि ऐन वक्त पर मिलने आये, खैर तभी आधी रात को एक बडे नामवर दर्जी (कराची) की दुकान खुलवायी गयी और उन साहब के लिये एक गर्म जोडा सिलवाया गया जिसे लेकर वो विलायत गये, बाद में ये साहब पाकिस्तान के एक बडे ब्रोडकास्टर और मीडिया के सतून बने जिनका नाम था आग़ा नासिर. पाकिस्तान के एक बडे काल्यूमिनिस्ट नसरुल्लाह खान ने अपने एक कालम में नक्शब की दानवीरता का हवाला और उनके खुले हाथ खर्च करने के कई किस्से लिखे है जिन्हे बडी बडी दावतें देने का बहुत शौक था और रेस खेलने का भी। एक रेस के दौरान कोई शख़्स बात बात में कह बैठे की उन्होंने 500 रुपये का नोट नहीं देखा, नक्शब साहब ने जेब में हाथ डाल कर एक 500 का नोट फ़ौरन आगे कर दिया, नोट देखकर उस शख्स ने वापस किया तो नक्शब ने कहा कि रखिये ये आपका ही है, वो समझते थे कि एक बार नोट किसी के लिए बाहर निकला तो वह उसी का हो गया। नक्शब जारचवी की नाम पाकिस्तान की शायरा, शो बिज़ से जुडी मशहूर मारुफ़ शख़्सियत शाहब बगलबाश के साथ जोडा गया, शाहब ने नक्शब के कई किस्से अपनी किताब “मेरा कोई माजी नहीं” में भी लिखे हैं।” फ़िल्म के दूसरे गीतकार केदार शर्मा (12 अप्रैल 1910—29 अप्रैल 1999) ने दीर्घ लेकिन गुमनाम जीवन जिया; हालाँकि वह लेखक और निर्देशक भी थे। कुछ कामयाब फ़िल्में भी उनके नाम रही। मगर फ़िल्म उद्योग में कुछ विशेष कमाल न कर सके।
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“महल” के संगीतकार खेमचन्द प्रकाश (उम्र मात्र 42 बरस जिए) के बारे में:— खेमचन्द प्रकाश के गुमनाम होने का प्रमुख कारण उनका 42 साल की उम्र में असामयिक निधन है। कई लोग भरी जवानी में गुज़र गए उनमें के एल सहगल (42 साल); नक्शब (42 साल). . . हैरानी तो इस बात से है कि तीनों अपने दौर के लीजेंड थे। तीनों परिपक्वता की उस उम्र में पहुँच गए थे जहाँ उन्हें और बेहतरीन काम करना था। आह! काल के कुरुर हाथों ने उन्हें ही निगल डाला। जयपुर में जन्मे खेमचन्द प्रकाश ने ही फिल्मों में न केवल पहली बार लता मंगेशकर को ब्रेक दिया बल्कि हिंदी फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान देने वाले गायक किशोर कुमार, गायक मन्ना डे और संगीतकार नौशाद अली को भी ब्रेक दिया था। नूरजहाँ का पाकिस्तान चले जाना लता के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उन दिनों लता कई दिग्गज गायिकाओं के बीच संघर्ष कर रही थी। अनेक गानों में तो वह सिर्फ़ कोरस गा रही थीं। तब खेमचन्द प्रकाश के ही संगीतवद्ध गीत “आएगा आने वाला, आएगा” इसी गीत ने पचास के दशक में जो धूम मचाई। आज लगभग 70 बरस गुज़र जाने के बाद भी इसकी ख़्याति कम नहीं हुई। यह फ़िल्म जगत के इतिहास में सबसे छोटा मुखड़ा वाला गीत है। इसके लिए महल की पूरी टीम बधाई की पात्र है। खेम के पिता गोवर्धन दास, महाराजा माधोसिंह (द्वितीय) के राजदरबार में ध्रुपद गायक थे। खेम के पिता ही उनके गुरु भी थे। उन्हें संगीत बालपन से ही विरासत में मिला था। उन्नीस बरस की किशोरावस्था में ही वह जयपुर दरबार में गायक बन गए। जहाँ से उनकी ख्याति पूरे राजिस्थान में फैली। खेमचंद प्रकाश का परिवार मूल रूप से सुजानगढ़ का रहने वाला था। उन्हें अनेक राजघरानों से अच्छे ऑफर मिलने लगे थे।वह कुछ समय बीकानेर दरबार (महाराजा गंगा सिंह) में गायक की हैसियत से रहे, मगर आज़ाद पंछी को ज़ियादा दिन कौन पिंजरे में क़ैद कर सकता है? इसके बाद वह हिमालय की वादियों में नेपाल चले गए। जहाँ वर्तमान राजा की मृत्यु तक वह दरबार में गाते-बजाते रहे। फिर कोलकोता चले आये जहाँ प्रसिद्ध संगीतकार तिमिर बरन के सहायक संगीत निर्देशक के रूप में न्यू थियेटर्स कंपनी में 110 रूपये माहवार अनुबन्धित नौकर हो गए। देवदास बंगाली में लोकप्रिय होने के उपरान्त जब हिंदी में बनी तो के एल सहगल को बतौर हीरो-गायक लिया गया। देवदास (1935) के दो गीत ‘बालम आय बसों मेरे मन में’ व ‘दुःख के दिन अब बीतत नाहि’…. सुनने में आया है कि, इन गीतों की असली धुन खेमचन्द प्रकाश ने ही बनाई थी, लेकिन क्रेडिट परदे पर उभरे संगीतकार के नाम को गया। यह बात उन्होंने भोजन के वक्त एक बार दान सिंह को बताई थी। पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ में भी इसका ज़िक्र है। पृथ्वीराज की सलाह पर खेमचंद मुंबई में आ गए। 1939 में उनके संगीत निर्देशन में पहली फिल्म आई— “मेरी आंखें।” इसी साल “गाजी सलाउद्दीन” एक और फिल्म आई। जिसमें उन्होंने सहायक के रूप में नौशाद को ब्रेक दिया। खेमचंद प्रकाश की एक महत्वपूर्ण फिल्म ‘तानसेन’ (1943) में आई। इसमें सहगल और खुर्शीद के गाए गीतों ने धूम मचा दी। “जगमग जगमग दिया जलाओ” के लिए खेमचंद ने एक माह तक कठोर श्रम किया और “दीपक राग” में यह गीत आज भी अद्वितीय प्रयोग माना जाता है। ‘महल’ से पहले ‘जिद्दी’ फिल्म (1948) में भी उन्होंने लता से गीत गवाया था। इसी फिल्म में प्रकाश ने किशोर कुमार से उनके जीवन का पहला गीत भी गवाया। सहगल के प्रभाव में गाया राग ‘जय जयवंती’ के दर्द भरे सुरों में— ‘मरने की दुआएं क्यों मांगूं, जीने की तमन्ना कौन करे?’ इसी तरह मयूर पिक्चर्स की ‘चलते-चलते’ (1947) में प्रकाश ने “मन्ना डे” को भी पहली बार अवसर दिया। 1935 से फिल्मों से जुड़े खेमचंद प्रकाश ने केवल 15 साल संगीत निर्देशन किया और 50-55 फिल्मों में संगीत दिया। 42 वर्ष की उम्र में 10 अगस्त, 1950 को उनका निधन हो गया।
खेमचंद के विषय में एक किद्वंती प्रचलित है, पता नहीं कितनी सच है! सुधि पाठकों के लिए दे रहा हूँ। इसे मैंने किसी पुराने अख़बार में बरसों पहले पढ़ा था:—खेमचंद एक बार बीमार हुए तो एक नेपाली नर्स ने बहुत सेवा की। कहा जाता है कि दोनों में प्रेम हो गया था। खेमचंद प्रकाश की पत्नी का निधन हो गया था और उनके आखिरी दिनों में यह नर्स उनकी सेवा में जी जान से जुटी रही। जानकारों का कहना है कि जो 1950 में खेमचंद प्रकाश के निधन के बाद यह नर्स अपने के होशो-हवास खो बैठी और पागल हो गई थी। वह खेमचंद प्रकाश का वही अमर गीत “आएगा आने वाला” वर्षों तक गाती रही और चल बसी।
“महल” फ़िल्म से जुड़े तमाम लोग एक अभिशाप के साथ ही जिए। खेमचंद प्रकाश ने अपनी इकलौती संतान “सावित्री” के लिए सुजानगढ़ में एक आलीशान मकान बनाया था, लेकिन आर्थिक संकट के चलते वह गिरवी रखना पड़ा था। सुजानगढ़ के ही रहने वाले वीणा कैसेट्स के मालिक के सी मालू ने बताया कि उन्होंने इस धरोहर को बचाने के लिए बहुत कोशिश की लेकिन अंतत: यह मकान नीलाम हो गया और मामला कोर्ट में उलझ कर रह गया।
खेमचंद प्रकाश ने लता को बच्ची की तरह स्नेह दिया। वे स्टूडियो आते तो लता जी के खाने का टिफिन साथ ले कर आते। किशोरावस्था में लता उस समय फ्रॉक पहनती थीं। लता के लिए उन्होंने कई फ्रॉक भी सिलवाईं। लता ने अकेले ही जीवन जिया। कभी शादी नहीं की।
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महल की अभिनेत्री मधुबाला (जीवन मात्र 36 वर्ष जी पाईं) के बारे में:— मधुबाला का जन्म 14 फ़रवरी 1933 को दिल्ली में एक पश्तून मुस्लिम परिवार मे हुआ था। मधुबाला अपने माता-पिता की 5वीं सन्तान थी। उनके माता-पिता के कुल 11 बच्चे थे। मधुबाला का बचपन का नाम ‘मुमताज़ बेग़म जहाँ देहलवी’ था। ऐसा कहा जाता है कि एक भविष्यवक्ता ने उनके माता-पिता से ये कहा था कि मुमताज़ अत्यधिक ख्याति तथा सम्पत्ति अर्जित करेगी परन्तु उसका जीवन दुखःमय होगा। उनके पिता अयातुल्लाह खान ये भविष्यवाणी सुन कर दिल्ली से मुंबई एक बेहतर जीवन की तलाश मे आ गये। मुम्बई मे उन्होने बेहतर जीवन के लिए काफ़ी संघर्ष किया। “महल” (1949) की फ़िल्म को छोड़कर, 1950 के दशक में उनकी कुछ फ़िल्में असफल भी हुयी। जब उनकी फ़िल्में असफल हो रही थी तो आलोचक ये कहने लगे की मधुबाला में प्रतिभा नही है तथा उनकी कुछ फ़िल्में उनकी सुन्दरता की वज़ह से हिट हुयीं, ना कि उनके अभिनय से। लेकिन ऐसा नहीं था। उनकी फ़िल्में फ़्लाप होने का कारण था—सही फ़िल्मों का चयन न कर पाना। मधुबाला के पिता ही उनके मैनेजर थे और वही फ़िल्मों का चुनाव करते थे। मधुबाला परिवार की एक मात्र ऐसी सदस्या थीं जिनकी आय पर ये बड़ा परिवार टिका था। अतः इनके पिता परिवार के पालन-पोषण के लिये किसी भी तरह के फ़िल्म का चुनाव कर लेते थे। चाहे भले ही उस फ़िल्म मे मधुबाला को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिले या ना मिले और यही उनकी कुछ फ़िल्मे असफल होने का कारण बना। इन सब के बावजूद वह कभी निराश नही हुयीं। 1958 मे उन्होने अपने प्रतिभा को पुनः साबित किया। इस साल आयी उनकी चार फ़िल्मे:— “हावडा ब्रिज”; “फागुन”, “चलती का नाम गाड़ी” और “काला पानी” सुपरहिट हुयीं। ख़ैर, यहाँ ज़िक्र कर रहा हूँ उनकी पहली मुहब्बत “यूसुफ़ ख़ान” का। “यूसुफ़ ख़ान” यानि सबके प्रिय अभिनेता दिलीप कुमार। पहली बार दिलीप कुमार से मधुबाला की मुलाक़ात ज्वार भाटा (1944) के सेट पर हुई। उनके मन मे दिलीप कुमार के प्रति विशेष अनुराग व आकर्षण पैदा हुआ तथा वह उनसे टूटकर प्रेम करने लगीं। उस समय वह 18 साल की थीं तथा दिलीप कुमार 29 साल के थे। क़िस्मत ने दोनों को “तराना” (1951) फ़िल्म मे एक बार पुनः साथ-साथ काम करने का मौक़ा दिया था। उनका प्रेम “मुग़ल-ए-आज़म” की 9 सालों की शूटिंग शुरू होने के समय और भी गहरा हो गया था। वह दिलीप कुमार से विवाह करना चाहती थीं पर दिलीप कुमार ने इन्कार कर दिया। ऐसा भी कहा जाता है की दिलीप कुमार तैयार थे लेकिन मधुबाला के लालची रिश्तेदारों ने ये शादी नही होने दी। 1958 मे पिता अयातुल्लाह खान ने कोर्ट मे दिलीप कुमार के खिलाफ़ एक केस दायर कर के दोनो को परस्पर प्रेम खत्म करने पर बाध्य भी किया। यह मधु के पहले प्रेम का दुःखद अंत था। अतः दिलीप कुमार से सम्बन्ध टूटने के बाद मधुबाला को विवाह के लिये तीन अलग-अलग लोगों से प्रस्ताव मिले। वह सुझाव के लिये अपनी मित्र अभिनेत्री नरगिस के पास गयी। नर्गिस ने भारत भूषण से विवाह करने का सुझाव दिया जो कि एक विधुर थे। नर्गिस के अनुसार भारत भूषण, प्रदीप कुमार और किशोर कुमार से बेहतर थे। लेकिन मधुबाला ने अपनी इच्छा से किशोर को चुना। किशोर कुमार एक तलाकशुदा व्यक्ति थे। मधुबाला के पिता ने किशोर कुमार से बताया कि वह शल्य चिकित्सा के लिये लन्दन जा रही है तथा उसके लौटने पर ही वे विवाह कर सकते है। मधुबाला मृत्यु से पहले विवाह करना चाहती थीं ये बात किशोर कुमार को पता था। 1960 में उन्होने विवाह किया। परन्तु किशोर कुमार के माता-पिता ने कभी भी मधुबाला को स्वीकार नही किया। उनका विचार था कि मधुबाला ही उनके बेटे की पहली शादी टूटने की वज़ह थीं। किशोर कुमार ने माता-पिता को खुश करने के लिये हिन्दू रीति-रिवाज से पुनः शादी की, लेकिन वे उन्हे मना न सके।
मधुबाला, हृदय रोग से पीड़ित थीं जिसका पता 1950 मे नियमित होने वाले स्वास्थ्य परीक्षण मे चल चुका था। परन्तु यह तथ्य फ़िल्म उद्योग से छुपाया रखा गया। लेकिन जब हालात बदतर हो गये तो ये छुप ना सका। कभी – कभी फ़िल्मो के सेट पर ही उनकी तबीयत बुरी तरह खराब हो जाती थी। चिकित्सा के लिये जब वह लंदन गयी तो डाक्टरों ने उनकी सर्जरी करने से मना कर दिया क्योंकि उन्हे डर था कि वो सर्जरी के दौरान ही मर जायेंगीं। जिन्दगी के अन्तिम 9 साल उन्हे बिस्तर पर ही बिताने पड़े। 23 फ़रवरी 1969 को बीमारी की वजह से उनका स्वर्गवास हो गया। उनके मृत्यु के दो बरस बाद यानि 1971 मे उनकी एक फ़िल्म जिसका नाम “जलवा” था प्रदर्शित हो पायी थी। महल फ़िल्म की इस कामयाब अभिनेत्री मधुबाला का देहान्त 36 साल की अल्पायु में ही हो गया। उनका अभिनय जीवन भी छोटा-सा ही था। महल फ़िल्म की मनहूसियत को जिस खूबी से मधु ने पर्दे पर जिया। उस तकलीफ़ से उन्हें अपने अल्प जीवन में ताउम्र गुज़रना पड़ा। हालाँकि इस दौरान मधु ने लगभग सत्तर फ़िल्मो में काम किया था।
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महल के अभिनेता अशोक कुमार (दीर्घ जीवन जिए) के बारे में:— 13 अक्टूबर 1911 ईस्वी को जिस बालक का जन्म हुआ मात-पिता ने उसका नाम कुमुद कुमार गांगुली रखा था। यही बालक आगे चलकर भारतीय रजतपट पर अशोक कुमार के नाम से मशहूर हुआ। हिन्दी फ़िल्म उद्योग में “दादा मुनि” के नाम से भी मशहूर रहे। इनके पिता श्री कुंजलाल गांगुली पेशे से वकील थे। अशोक ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा खंडवा शहर ( मध्यप्रदेश) में प्राप्त की। बाद मे उन्होंने अपनी स्नातक की शिक्षा इलाहबाद यूनिवर्सिटी (उत्तर प्रदेश) से की। इस दौरान उनकी दोस्ती शशधर मुखर्जी से हुई। भाई बहनो में सबसे बड़े अशोक कुमार की बचपन से ही फ़िल्मों मे काम करके शोहरत की बुंलदियो पर पहुंचने की चाहत थी, लेकिन वह अभिनेता नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहते थे। अपनी दोस्ती को रिश्ते मे बदलते हुए अशोक कुमार ने अपनी इकलौती बहन की शादी शशधर से कर दी। सन 1934 मे न्यू थिएटर मे बतौर लेबोरेट्री असिस्टेंट काम कर रहे अशोक कुमार को उनके बहनोई शशधर मुखर्जी ने बाम्बे टॉकीज में अपने पास बुला लिया।
बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म “जीवन नैया” ( 1936) के निर्माण के दौरान फ़िल्म के मुख्य अभिनेता नजम-उल-हसन ने किसी कारणवश फ़िल्म में काम करने से मना कर दिया। इस विकट परिस्थिति में बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय का ध्यान अशोक कुमार पर गया और उन्होंने उनसे फ़िल्म में बतौर अभिनेता काम करने की पेशकश की। इसके साथ ही फ़िल्म ‘जीवन नैया’ से अशोक कुमार की अभिनेता के तौर पर फ़िल्मी नैया का सफ़र शुरू हो गया। अगले वर्ष ही बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले प्रदर्शित अगली फ़िल्म ‘अछूत कन्या’ (1937) में काम करने का मौका मिल गया। इस फ़िल्म में जीवन नैया के बाद ‘देविका रानी’ फिर से उनकी नायिका बनी। फ़िल्म मे अशोक कुमार एक ब्राह्मण युवक के किरदार मे थे, जिन्हें एक अछूत लड़की से प्यार हो जाता है। सामाजिक पृष्ठभूमि पर बनी यह फ़िल्म काफी पसंद की गई और इसके साथ ही अशोक कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री मे अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए। इसके बाद देविका रानी के साथ अशोक कुमार ने कई फ़िल्मों में काम किया। इनके अलावा इसी दशक में प्रदर्शित फ़िल्म “इज्जत” (1937); फ़िल्म “सावित्री” (1938) और “निर्मला” (1938) जैसी फ़िल्में शामिल हैं। इन फ़िल्मों को दर्शको ने पसंद तो किया, लेकिन कामयाबी का श्रेय बजाए अशोक कुमार के फ़िल्म की अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया। इसके बाद उन्होंने प्रदर्शित फ़िल्म “कंगन” (1939); “बंधन” (1940) व “झूला” (1941) में अभिनेत्री लीला चिटनिश के साथ काम किया। इन फ़िल्मों मे अशोक के अभिनय को दर्शको की काफी सराहाना मिली; इसके बाद तो अशोक कुमार फ़िल्म इंडस्ट्री मे पूरी तरह “बतौर अभिनेता” स्थापित हो गए। अशोक कुमार को बांबे टाकीज की एक अन्य फ़िल्म “किस्मत” (1943) में काम करने का मौका मिला। इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अभिनेता की पांरपरिक छवि से बाहर निकल कर अपनी एक अलग छवि बनाई। इस फ़िल्म मे उन्होंने पहली बार एंटी हीरो की भूमिका की और अपनी इस भूमिका के जरिए भी वह दर्शको का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने मे सफल रहे। किस्मत ने बॉक्स आफिस के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए कोलकाता के चित्रा सिनेमा हॉल में लगभग चार वर्ष तक लगातार चलने का रिकार्ड बनाया। बांबे टॉकीज के मालिक हिमांशु राय की मौत के बाद 1943 में अशोक कुमार बॉम्बे टाकीज को छोड़ फ़िल्मिस्तान स्टूडियों चले गए। वर्ष 1947 मे देविका रानी के बाम्बे टॉकीज छोड़ देने के बाद अशोक कुमार ने बतौर प्रोडक्शन चीफ बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले मशाल जिद्दी और मजबूर जैसी कई फ़िल्मों का निर्माण किया। इसी दौरान बॉम्बे टॉकीज के बैनर तले उन्होंने 1949 में प्रदर्शित सुपरहिट फ़िल्म महल का निर्माण किया। उस फ़िल्म की सफलता ने अभिनेत्री मधुबाला के साथ-साथ पार्श्वगायिका लतामंगेश्कर को भी शोहरत की बुंलदियों पर पहुंचा दिया था। अशोक कुमार जो इस”महल” फिल्म के प्रमुख नायक थे और निर्माता भी। फ़िल्म “महल” की कहानी उनके छोटे भाई किशोर कुमार के जीवन में घटी। पहली पत्नी से तलाक़ के बाद उन्होंने बीमारी की हालत में मधुबाला से शादी की और 1960 से 1969 तक लगभग नौ साल बीमार पत्नी को प्यार किया। अशोक और किशोर के बीच में लगभग 20 बरस का फ़र्क़ था लेकिन 1987 के साल में जिस दिन अशोक कुमार अपना जन्मदिन मना रहे थे। उसी दिन किशोर का हृदयगति रुक जाने से देहान्त हो गया। इसके बाद अशोक ने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया। किशोर ने मधुबाला के बाद भी दो शादियाँ और कीं मगर कभी खुश न रह सके।
अशोक कुमार को दो बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्म फेयर पुरस्कार से भी नवाजा गया। पहली बार फ़िल्म “राखी” (1962); और दूसरी बार फ़िल्म “आर्शीवाद” (1968)। इसके अलावा फ़िल्म “अफसाना” ( 1966) के लिए वह सहायक अभिनेता के फ़िल्म फेयर अवार्ड से भी नवाजे गए। दादामुनि को हिन्दी सिनेमा के क्षेत्र में किए गए उत्कृष्ठ सहयोग के लिए 1988 में हिन्दी सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा सन् 1999 ईस्वी में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में अविस्मरणीय योगदानों के लिए अशोक कुमार को पदम् भूषण से भी अलंकृत किया। इसके दो वर्ष पश्चात ही उनका निधन 10 दिसम्बर 2001 ईस्वी को बम्बई महाराष्ट्र राज्य में ही हुआ।
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संक्षेप में 1949 में रिलीज “महल” आज भी एक बेजोड़ फ़िल्म है। “महल” की कहानी और निर्देशन कमाल अमरोही साहब की थी। ये कहानी उनके जीवन में भी घटित हुई। मीना कुमारी उनकी दूसरी पत्नी थी। जिनके साथ वह कभी सुखी न रह पाए। मीना कुमारी 39 वर्ष की अल्पायु में निःसंतान संसार से विदा हो गयी। मीना की मौत के लगभग 20 साल बाद कमाल अमरोही का निधन हुआ। मीना की मौत के बाद उनकी एक ही फ़िल्म “रज़िया सुल्तान” आई। जो बड़ी फ्लॉप साबित हुई। इसके बाद कमाल साहब कभी फ़िल्म बनाने का रिस्क न उठा सके। मीना के अवसाद में ही वह भी दुनिया से रुख़सत हुए। “महल” में जिन तीन गायिकाओं ने गाने गाये उनमें राजकुमारी; ज़ोहराबाई अम्बालावाली और प्रमुख गायिका लता मंगेशकर थी। लता हिंदी फिल्मों की प्रमुख गायिका ही बनी रही लेकिन अन्य दोनों गायिकाओं को विशेष काम या गाने नहीं मिल पाए। लता ने अपार ख्याति पाई लेकिन एकांकी जीवन जिया। “आएगा आने वाला आएगा” गीत गाने के बाद लता की गायिकी की गाड़ी तो चल पड़ी मगर उसके गीतकार नक्शब और संगीतकार खेमचन्द प्रकाश गुमनामी के अंधेरों में खो गए। आज शायद ही कोई उनके नामों को जानता हो। अशोक कुमार जो इस”महल” फिल्म के प्रमुख नायक थे और निर्माता भी। फ़िल्म “महल” की कहानी उनके छोटे भाई किशोर कुमार के जीवन में घटी। पहली पत्नी से तलाक़ के बाद उन्होंने बीमारी की हालत में मधुबाला (महल की अभिनेत्री) से शादी की और 1960 से 1969 तक लगभग नौ साल बीमार पत्नी को प्यार किया। अशोक और किशोर के बीच में लगभग 20 बरस का फ़र्क़ था लेकिन 1987 के साल में जिस दिन अशोक कुमार अपना जन्मदिन मना रहे थे। उसी दिन किशोर का हृदयगति रुक जाने से देहान्त हो गया। इसके बाद अशोक ने कभी अपना जन्मदिन नहीं मनाया। किशोर ने मधुबाला के बाद भी दो शादियाँ और कीं मगर कभी खुश न रह सके।
(आलेख संदर्भ:— पुराने अख़बारों की कतरने; पुरानी फ़िल्मी पत्र-पत्रिकों की गॉसिप्स व विकिपीडिया से प्राप्त जानकारियों के आधार पर)