“पप्पू का बकरा”
“पप्पू का बकरा”
डरा सहमा बैठा है , कोने में;
लगा पिछला याद,संजोने में;
बीते नववर्ष, बहुत छोटा था;
जब उसका परिवार टूटा था।
बड़ा होकर,इस चिंता में डूबा;
टूटे न , आगे जीने का मंसूबा;
इस नववर्ष,न बारी हो उसकी;
कोई ये न कहे, है बहुत टेस्टी।
बगल में,अम्मा बैठी है बेचारी;
आखिर कब तक, खैर मनाए;
सोच रही है,इस मंगलमय वर्ष;
बकरे का अमंगल ना हो जाए।
मालिक भी था, बड़ा ही बेदर्दी;
ऊपर से पड़ी थी,जोर की सर्दी;
ये घटना है, नववर्ष २०२२ की;
दोस्तों संग, मेरी फरमाईस की।
मुझे देख , तब जी लपलपाया;
फिर मुझे दौड़ाया, मैं पकड़ाया;
मैंने भी,मां तरफ नजर दौड़ाया;
फिर उसने,आखिर काट खाया।
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स्वरचित सह मौलिक
……✍️पंकज ‘कर्ण’
…………….कटिहार
तिथि:०१/०१/ २०२२