अभी नहीं मरूंगी मैं
धमनियों में बहते दर्द के चिकनी ढलान पे
जब खोजती हूं मैं …
अपने ही देह को
जो गड़ मड हो गया है दर्द के फ़र्द में
दर्द को पहने हुए
कपड़ों से ढके देह की
जब एक्स – रे आती है
और कई बड़े कारण विदा के
सफेद वस्त्रधारियों की ओर से बताई जाती है
रहस्यमयी आडी तिरछी रेखाओं में मैं
दर्द के कारणों को ढूंढने का असफल प्रयास करती हूं
और कुछ भी न समझ पाने से
हार कर खुद को ही कहती हूं
किसी भी कारण से
अभी मरने को तैयार नहीं मैं
नहीं सौंप सकती अपनी आंखें अग्नि को
नहीं ढहने दे सकती अपने देह के वृक्ष को
उन धड़कनों को कुंद नहीं कर सकती
जिस में तुम प्रतिपल सुनाई देते हो
तुम्हें सुनते रहने की अभी ईक्षा शेष है
अभी बहुत कुछ पढ़ना शेष है
अभी तो शब्दों के समुद्र से
मैंने एक घूट भी नहीं पीया है
जबकि चाह है छाक भर पीने की
और वो शब्द जो तुमसे निकलते हैं …
उन्हें ओढ़ कर विश्राम करने की
किताबों के ढेर में तुम्हारे नाम का किताब ढूंढ़ना भी तो शेष है
अरे हाॅं, उस किताब का अभी अशेष होना भी तो शेष है
अभी तो मैंने तुमसे बिदा भी नहीं लिया है
तभी तो कह पाऊंगी तुम्हें “विदा”
अभी नहीं मरूंगी मैं … अभी नहीं लूंगी “विदा”
~ सिद्धार्थ