? अभिशप्त ?
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चिंगारी जो फुट रही उसे
शोला अब बन जाने दो,
अवरुद्ध नहो पथ मेधा का,
हमें पर्वत से टकराने दो।
अपमान सहा है क्रोध जो पाला
प्रकट उसे हो जानें दो,
अवरुद्ध नहो पथ मेधा का,
हमें पर्वत से टकराने दो।
मन भीतर जो आग जल रही
भड़क उसे अब जाने दो,
अवरुद्ध नहो पथ मेधा का
हमें पर्वत से टकराने दो।
शिक्षा का श्रृंगार मेधावी
तनिक निखर अब जाने दो,
अवरुद्ध नहो पथ मेधा का
हमें पर्वत से टकराने दो।
है सिरमौर मेधावी राष्ट्र का
आज हमें बतलाने दो,
अवरुद्ध नहो पथ मेधा का
हमें पर्वत से टकराने दो।
बहुत सहा अभिशाप मेधावी
अब तो श्राप मिटाने दो,
अवरुद्ध नहों पथ मेधा
हमें पर्वत से टकराने दो।
फिर ना हो अभिशप्त मेधावी
पथ प्रसस्त हो जाने दो,
अवरुद्ध नहों पथ मेधा का
हमें पर्वत से टकराने दो।
शापित बनकर रहो नहीं
मेधा अपमान मिटाने दो,
अवरुद्ध नहों पथ मेधा का
हमें पर्वत से टकराने दो।।
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पं.संजीव शुक्ल “सचिन”