अभिलाषा
अभिलाषा
आकाश की असीम शून्यता में
क्या आकर्षण हैं छुपा वहाँ।
गगन की स्वच्छंदता से
लेना-देना मुझको कहाँ।
ऊपर देखूँ तो सर चकराता हैं।
मुझको तो अवनी ही भाता हैं।
सुरज की सुनहरी किरणें
जब धरती पर पड़ती हैं।
झिलमिला उठता है जग सारा
तब महि ही प्यारी लगती है।
निर्जीव गगन को छोड़
ज़मीं की ज्वाला को चख़ लो।
दुनीया की नज़रो से हटकर
अपनी अभिलाषा को पढ़ लो।
पूरनमासी का पूरा चाँद
जब ज़मीन पर पड़ती है।
लहरें गले मिलकर गाती है।
पंख फैला….जहाँ तक उड़ो
पर जमे रहो मिट्टी के ह्रदय से।
रंजना