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17 Jan 2020 · 1 min read

अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया है तू…

सरकारी नौकरी की अपनी खूबियां, सीमाएं और मर्यादाएं हैं। इन बंधनों में थोड़ी बहुत सुरक्षा, अधिकार और सम्मान तो है मगर ठहराव की गहरी उकताहट भरी छटपटाहट कहीं अधिक मात्रा में है। प्राय: हम जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों के लोगों का युवावस्था में एकमात्र सपना एक अदद ठीक-ठाक नौकरी की तलाश होती है। मगर जब यह मिल जाती है तो अक्सर शुरुआत के कुछ दिनों के भ्रम के टूटने के बाद लगने लगता है कि यह वह चीज तो नहीं है जिसकी तलाश थी। जो जीवन को कोई सार्थकता दे सके। …आजादी की चाह में आप सर्वत्र बंधनों में बंध जाते हैं, जैसे मुक्त गगन के परिंदे दाना पानी के लिए किसी पिंजरे में आ बैठे हों… मुझे अभी तक जितने भी कायदे के लोग मिले सब कहीं न कहीं इस बंधन भरी जिंदगी से अलग कुछ और बेहतर की प्यास से भरे मिले। …पद, पैसा और अधिकार बहुत छोटी चीज लगने लगती है कुछ दिन बाद। जिन्हें बहुत बड़ी लगती हैं वो या तो खुद बहुत छोटी दुनिया में रहते हैं या फिर बुझ चुके हैं । खाना, पीना, पैसा जमा करना और मर जाना, क्या इसी का नाम जिंदगी है ???
…अस्तित्व समझाता है कि यह सुरक्षित सहारा है, आरामदायक सराय है, किंतु सार्थकता और अस्मिता की प्यास भीतर कहीं गहराई में छटपटा कर बार-बार पुकारती रहती है कि “अभिमन्यु, चक्रव्यूह में फंस गया है तू”।।

©

Language: Hindi
Tag: लेख
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