अब रुकने का नाम ले
मैं मजबूर होकर फिर रहा दर-ब-दर,
ए काश कोई नई राह मिल जाए।
इस आस से देखता हूँ हर एक चेहरे को,
कि कोई मुझको नई चाह मिल जाए।
राह सुनसान है और साथ कोई नहीं,
खामोश हैं साँसे और बात कोई नहीं।
देखता हूँ मैं यूँ कब तलक चलता रहूँगा,
ये होठ अपने मैं कब तक सिलता रहूँगा।
क्या हमसफर भी कोई मिल पाएगा?
क्या नई राहों का वजूद बन पाएगा?
कभी सोचता हूँ किधर जा रहा हूँ,
क्यूँ मैं नई राहें बना रहा हूँ।
मुसाफिर रात होगी तो कहीं रुकना पड़ेगा,
कोई एक मकाम तो चुनना पड़ेगा।
चल छोड़ वक्त का हाथ थाम ले,
ए ‘हंस’ अब रुकने का नाम ले।