अब मरूंगी भी मैं ,और देखूंगी भी मैं
मेरी आँखों में कितने ही सपने
फूलों सा सुन्दर गंगा सा निर्मल
असीम आकाश सा बिस्तृत
पर मैं ,मैं तो बंधी हूँ
अपने ही किसी अपने से
एक घेरा है मेरे इर्द -गिर्द
कई हाँथ थामे रहतें है मुझे
क्या कोई चीज हूँ मैं
जिसे बचाना चाहतें हैं
मेरे अपने ,
क्या किसी गरीब की
जेब में परी अठन्नी हूँ
जो छीन ली जाउंगी
किसी दस्यु के हाँथ
या कोई अंजाना हाँथ
खींच लेगा मुझे
अंधरे के गर्त में
कुचल देगा ,मसल देगा
मरे तेज ,मेरे सपने को
या जुदा कर देगा
मेरे अपनों की अपनाइयत से
मैं तो एक लड़की ,एक औरत हूँ
मेरा तो काम ही यही
पूरी लगन से सपने देखना
और पूरी शिद्द्त से कोशिस करना
इस बचने और बचाने की कोशिस में
दाव पे मेरा ही अस्तित्व है,
मेरे ही धार को कुन्द करने की कोशिस,
मेरे ही सम्भावनाओं को कुचलने की साजिश,
पर मैं तो असंख्य हूँ ,अकूत हूँ,
मैं अपने हिस्से का गिरना ,मसलना ,
कुचलना सब खुद ही झेलूंगी
खुद निबटूंगी
अपने हिस्से के दर्द और विग्रह [युद्ध ] से
अपने दांतों ,अपने नाखूनों को
पैना औज़ार बनाऊंगी
सिर्फ जननी होना मेरा काम नहीं
बाज बनुँगी बाज
उठना होगा समेटना होगा हमें
अपनी तमाम शक्तियों को
अपनी प्रचंडता को वापस मांगना होगा
काली और दुर्गा से
अब घेरा तोड़ना होगा
अब मरूंगी भी मैं
और देखूंगी भी मैं
[मुग्धा सिद्धार्थ ]