अब मन की पीर लिखेंगे हम
अब न धर धीर लिखेंगे हम
अपनी तकदीर लिखेंगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम
किस्मत जिनकी खोटी है
न रोटी है न लँगोटी है
आँधी में उड़ा जिनका छप्पर
और कर्ज़ में बोटी-बोटी है
उस भारत भाग्य विधाता के
नैनों का नीर लिखेंगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम
मसली जाती हों जहाँ कलियाँ
ऐसा न चमन खिलने पाए
बेटी जिनको न सुहाई कभी
उनको न बहू मिलने पाए
इनके अपराध की खातिर अब
रब को तहरीर लिखेंगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम
कूड़ा-करकट जो बिनते हैं
काँटे ही काँटे चुनते हैं
आँखें हैं धँसी सूखी हड्डी
हैं अनपढ़ पर दिन गिनते हैं
रोते-बिलखते बच्चों की
बेड़ी-जंजीर लिखेंगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम
एक साथ रहना खाना
तो जाने कब का छूट गया
ख्वाब युवावस्था का सब
वृद्धावस्था में टूट गया
वृद्धाश्रम के दीवारों की
टूटी तस्वीर लिखेंगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम
घर से हैं हुए जो बेगाने
सरहद पे खड़े सीना ताने
सर पर है कफ़न पर होठों पर
मुस्कान सजाए दीवाने
उन भारत माँ के सपूतों को
भारत का वीर लिखेगे हम
श्रृंगार की कश्ती डूब गयी
अब मन की पीर लिखेंगे हम