अब भी सुधर जा इन्सान
बनता है मानव
अनजान
बहुत भोला है
उसका ज्ञान
बाढ़ जल प्रलय
से होता है
परेशान
प्रकृति को
करता है
बदनाम
रोक दिये है
बहाव के
सब रस्ते
अब बहते है
बच्चे बस्ते
नहीं है चिंता
पर्यावरण की
प्रदूषण है
भरपूर
पाट दिये है
घाट किनारे
कांक्रीट के
महल बना के
है हर साल
वही बाढ़
जय प्रलय
करते नहीं
जल प्रबंधन
करते हैं
उम्मीद
जिन्दगी की
दिखाती है
बाढ़
रूद्र रूप अपना
अब भी चेतो
करो बंद
अतिक्रमण
नदी नालों
ताल तालाब
झीलों पर
जियो और
जीने दो
प्रकृति
और मानव को
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल