अब प्यार का मौसम न रहा
इस दुनिया में, ऐ जान मेरी
अब प्यार का मौसम न रहा
हो सके तो मुझको भूल जा
गुलज़ार का मौसम न रहा…
(१)
लोगों की बदहाली देख
कैसे फेरे आंख कोई
भीख रहम की मांगे जब
मुझसे बढ़ाकर हाथ कोई
शाम-सुबह महबूब के
दीदार का मौसम न रहा…
(२)
कहीं युद्ध तो कहीं दंगा है
सबके गले में फंदा है
मज़हब और सियासत का
खेल यह कितना गंदा है
ऐसी चीख-पुकार मची
झंकार का मौसम न रहा…
(३)
सारे लुटेरे और क़ातिल
बैठे आके ऊंचे ओहदों पर
देश-समाज की बागडोर
आजकल बस शोहदों पर
ज़ुल्मत का हुआ दौर शुरू
फनकार का मौसम न रहा…
(४)
दिल के टूटे हुए साज से
क्या छेड़े कोई ग़ज़ल
बर्बादी की दहलीज़ पर
आदम-हव्वा की नसल
हवाओं में है मर्सिया
शाहकार का मौसम न रहा…
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Shekhar Chandra Mitra
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