अब गांव के घर भी बदल रहे है
घर के टूटे छज्जे , और गिरी हुई वो घर की दीवारें आज भी मुझे बुलाते हैं
नांघी थी जिस दिन मैंने घर की ढेहरी उस दिन से घर के खिड़की, दरजवाजे बेटा बेटा चिल्लाते है..
टूटे घर के इस हर कोने में मेरे बचपन की यांदे है ,
दादा दादी की कहानियां और
मेरी ना समझी की करामाते हैं,
बीता जिस आंगन में बचपन मेरा उस आंगन में आज भी बस मेरे हंसने रोने ,खिल खिलाने की यादें है,
टूटी छत से लटकी बांस की बल्लियों में आज भी अटकी मेरी कुछ धूल जमी किताबें है,
सिकहरे और पिट्टारे मे अब तो बस पक्षियों के घर नजर आते है
जहां कभी मेरे कारण मिठाई के डिब्बे छिपाए जाते थे….
घर के टूटे छज्जे और गिरी हुई वो घर की दीवारें आज भी मुझे बुलाते है……
कब लौटेगा तू इस आंगन में वापस कहकर मुझे चिढ़ाते है……
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