अब आ भी जाओ
इन ऊंची ऊंची वादियों में
इन ठंडी ठंडी तन्हाईयों में
जिस्म बर्फ़ सा जमा जा रहा
फिर भी ये रूह मेरा
अंगीठी सा है जल रहा।
ये शाॅल, स्वेटर और ये कंबल
जिस्म में मेरे गर्मी भरने की
कोशिश है पुरजोर कर रहे
बेख़बर इस बात से
कि ये बावरा मन किस ओर है चले।
रूह की तो छोड़ो,
जिस्म भी कहां किसी की है सुन रहा
गर्म कपड़े औ काॅफी पाकर भी
जबरन ठंड से है कांप रहा
पता है क्यूं??
बोलो ना….. पता है क्यूं?
वज़ह से तुम वाक़िफ हो
मेरे ज़र्रे- ज़र्रे के तुम मालिक हो
तभी तो मेरा रोम
तुम्हें ही पुकारता है
अपनी ख़ुशी और तक़लीफ से
तुम्हें ही हमेशा रूबरू करवाता है
और तुम इन्हें सुन पाते हो,
समझ पाते हो
समझकर इनकी तक़लीफ हमेशा
तुम्हीं तो इन्हें मुस्कुराना सीखाते हो।
फिर भी, आज इतने दूर हो…….
सुनो ना! आ जाओ ना……
ये बर्फीली हवाएं मेरी हड्डियां बेध रही है
साथ ही रूह की आग को भी हवा कर रही है
अब आ भी जाओ
कि तुम बिन ये बावड़ी तिल-तिल कर मर रही है।
-© Shikha