अबोध जुबान
अबोध जुबान
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एक बात ही है, जो आपको बतानी
हिम्मत नहीं मुझ में, उसके शब्द जुटानी।।1।।
कैसे कहूं और किससे कहूं ये वीरानी
शब्दों में कैसे लाऊ वो खौफनाक कहानी।।2।।
मां बाबूजी के आंगन में थी एक सयानी
भरा पूरा जीवन था उसका जीवनी।।3।।
अल्हड़ से खेलों में होती रही बचकानी
मां के पल्लू में बांधती थी अपनी कहानी।।4।।
हर शाम घर आती वो सपने लिए सुहानी
बाबूजी के गले में हाथ डाले सुनती परियों की कहानी।।5।।
एक शाम ऐसे ही आयी बेखौफी की कहर लाई
नराधमो ने शरीर नोच, कपड़ों की चिंधिया बनाई।।6।।
शरीर उसका रौंद के, रंगरेलियां मनाई
बीच रास्ते फेंक के अपनी मर्दानगी जताई।।7।।
किस मुंह से घर जाऊं,किसको ये बताऊं
शरीर पे क्षतविक्षत घाव कैसे दिखाऊं।।8।।
अबोध मैं बालिका,मन के घाव कैसे भर पाऊं
पड़ी थी एक कोने में,सबको क्या समझाऊं।।9।।
डाल दिए किसी ने वस्त्र नंगे बदन पर मेरे
कोई कहता आयी है पुलिस लाज बचाने तेरे।।10।।
मन ही मन पूछती रही सवाल अपने आप से
जवानी की दहलीज आना ये कौनसा अपराध जे।।11।।
याद आ रहे मां बाबूजी जिनकी मैं शान सी
दुबक रही उस कोने में पड़ी एक लाश सी।।12।।
चूर चूर हुए सपने, देखे थे कभी ख्वाबों में
क्या महिला होना अपराध हैं इस रिसासत में।।13।।
मंदार गांगल “मानस”