अबला नारी
नारियों का शोषण ,
अभी भी नहीं थम रहा,
घर की देहलीज के अंदर,
कैद कर अस्तित्व को,
तन मन धन स्वभिमान ,
अबला को रौंद रहा ।
ना समझ ये नर पिशाच,
कूटनीति बुन कर ,
जाल में बाँध कर,
ताकत का कर रहा गुमान,
प्रताड़ित करता जख्म दे कर,
दुर्दशा है नारी का अपमान ।
घोर सामाजिक अपराध,
आँसू बहते खून की लाल धार,
अत्याचार व्यभिचार से टूट रही,
नहीं मिल रहा स्वतन्त्रता के पंख,
हर रूप में नारी से हो रहा भेद,
नर की मानसिकता में दरिंदगी है तेज़ ।
हैवानियत अंदर ही है बैठा,
जिस्म आबरू को भी है लूटा,
बन ना पाये कोई नारी शक्ति,
रिश्तों की बुनियाद से कमज़ोर है किया,
छल कपट से भी आघात किया,
चीख को भी दबा दिया।
अबला समझने की भूल है,
किसी ने नहीं एहसास किया,
अबला नहीं सबला है वह,
अपने ही घर में जो रो रही ,
दर्द को जो ढ़ो रही,
हकीकत में वहीं है जग की बुनियाद ।
रचनाकार-
बुद्ध प्रकाश ✍🏼✍🏼
मौदहा हमीरपुर।