‘अबकी फीकी होली’
धरा, हवा व पेड़ बचेंगे,
मानव ज्ञान कमाल से|
पर्यावरण दुरुस्त रहेगा,
धुआँ-धूल-धमाल से|
अबकी बार रंग खेलने,
ना निकलो तुम होली में|
कोरोना की गहन मार है,
बैठे रहो तुम खोली में|
मयंक बिखरे सपने सारे,
खाली जेब महँगाई में|
उड़ा ऱंग फीकी हुई होली,
जलीं खुशियाँ वनराई में|
✍ के.आर. परमाल ‘मयंक’