अबकि सावनमे , चले घरक ओर
अबकि सावनमे
चले घरक ओर,
माटि जतह आंगन बिछाए,
आ छप्परक छेन्हसँ चुएत बूंन्नी,
कहैत सभ पुरखा पिहानी।
तुलसी जत चउरी पर
जलैत दीपक बाती,
आ पाइनसँ भरल गलीक धूरि
स्मृतिक चादर बुनैत लोक ।
माँए मुँहेसँ सुने
ओ पुरान गीतनाद,
जेहन बरसाक रिमझिम,
जे मन केँ संगीतसँ भरि दैत ।
देख बगियामे आमक गाछ,
जे अहू काल झुलैत हेतै
नेनपनक सप्पन सन।
आ भेटब ओ डुपसँ,
जकर जगत पर बैसल
पहिल बेर देखने रही आकाश।
अबकि सावनमे
चले घर ओर,
जत बरखा माथ पर नहि बरसैत,
मुदा हृदयमे उतरि जाइत ।
जत हर कोना गूँजैत
स्नेहक धुन सँ,
आ हर गंधमे बसल
माटिक सौंध।
अबकि सावनमे
चले घर ओर,
किएक तँ ओ घर नहि,
हमर आत्माक द्वार ।
—श्रीहर्ष—-