अपनों के मेले
अपनों के मेलों की भीड़ में अकेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
टूटे हुए ख्वाबों के
टुकड़ों को जोड़ा है ।
पत्थर के पंथों को
मुट्ठी से तोड़ा है ।।
पसीनों के सागर में तैरे हैं खेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
अनजाने लोगों को
बेबश में साथ लिये ।
समझौता कर करके
कई कई बार जिये ।।
दुनिया के ढंग कितने देखे अलबेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
जानकर भी कितनों को
नजर अंदाज किया ।
शांति भंग के भय से
संयम का घूंट पिया।।
जीवन की धारा के अनजाने रेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
दो कौड़ी कीमत के
कुर्सी पर बैठे हैं ।
अंदर से ढीले वो
बाहर से ऐंठे हैं ।।
पत्थर से दिखते पर ,माटी के ढेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
शेर कह, सियारों को
आत्म मुग्ध करना है।
स्वविवेक से प्रगति के
पंथ पर विचरना है ।।
वक़्त की है मांग यही दौर के झमेले हैं ।
शिखरों तक जाने में दर्द कई झेले हैं ।।
✍️सतीश शर्मा, सिहोरा
नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश)