अपनों के करीब आ जाओ न !
अपनों के करीब आ जाओ न !
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इतना क्यों घबराते हो….
शांत भी हो जाओ न !
सभी तो अपने ही हैं यहाॅं ,
अपनों के करीब आ जाओ न !!
वो तो वक्त ही कुछ ऐसा था….
जो उस ओर ढकेला था !
अब ऐसा कुछ भी नहीं ,
नज़र मिलाओ न, नज़र मिलाओ न !!
इस जीवन में रखा ही क्या है ?
थोड़े ग़म और चन्द खुशियाॅं,
बस यही है ये चमचमाती दुनियाॅं,
इसीलिए बढ़ा लो थोड़ी नजदीकियाॅं ,
समझ लो जीवन के मर्म और बारीकियाॅं,
और खुद को ज़्यादा उलझाओ ना !
बस, अपनों के करीब आ जाओ न !!
अभी तो जीवन रूपी पेंच
की चन्द गिरहें ही खुली हैं !
और कितनी सारी गिरहें
खुलनी अभी बाक़ी है !
हर गिरह को धैर्य पूर्वक
खोलना ही बुद्धिमानी है !
ऐसे में बीच राह में ही
पथ से भटक जाना नादानी है !
अब भी काफ़ी वक्त बचा है
जीवन में कुछ करने के लिए ,
ऐसे में बीच राह में ही भटक जाना
अज्ञानता की ही निशानी है !
पग, पग पर ठोकरें ही ठोकरें हैं
ऐसे में अपनों से ज़्यादा दूर
कदापि तुम जाओ ना !
बस, अपनों के करीब आ जाओ न !!
मंज़िल पाने के रास्ते इतने दुर्गम हैं,
जो पथरीले कंकड़-पत्थरों से बिछे हैं,
जहाॅं दु:ख ज़्यादा और खुशियाॅं कम हैं,
चलते चलते पाॅंव शोणित से लिपटे हैं,
ऐसे में इन रास्तों के अवरोध को ढकने
उपवन से पुष्प कुसुम ले आओ न !
समूचे रास्ते पे बिछाके, अवरोध हटाके,
इन रास्तों को सरल सुगम बनाओ न !
अब और सोचने समझने के वक्त नहीं हैं,
बेशर्त अपनी लय में तुम आ जाओ न !
बस, अपनों के करीब आ जाओ न !!
स्वरचित एवं मौलिक ।
अजित कुमार “कर्ण” ✍️✍️
किशनगंज ( बिहार )
दिनांक : २७/०६/२०२१.
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