अपने
अपने
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डरती है
दुनिया
शत्रुओं से
ज्ञात और अज्ञात
वे काफी
शक्तिशाली होते हैं
आखिर शत्रु जो हैं
रिश्तों के अंतरतम
विवेक से परे
संवेदनहीन,
रक्तपिपासु आत्मा
को अंदर छिपाए
काल की
प्रतिपल प्रतीक्षा
अवसर का
इंतज़ार।
सौभाग्यशाली हैं वो
जिनके शत्रु हैं
ज्ञात शत्रु के लिए
शत्रुवत आचरण
का
हथियार तो है।
काश!
कुछ शत्रु
मेरे भी होते,सगे
मेरा कोई शत्रु नहीं
ज्ञात और अज्ञात
बनता ही नहीं
चाहने पर भी
हाँ दोषी हूँ
मैं
एक शत्रु भी
नहीं बना पाया
रोने लगे
लोग
जब उनसे अलग हुआ
शायद उन्हें भी
आभास है
इस बात का
कि
इतने सारे लोग
मेरे’अपने’ तो हैं
हाँ बिल्कुल
मेरे अपने।
-अनिल कुमार मिश्र
हज़ारीबाग़, झारखंड