अपने ही मन के अंदर से !
कुछ रोज टूट जाती हूँ मैं,’अंदर’ से
तुम देखते हो मुझे बाहर से,
मैं बिखरती-सिसकती-सुबकती
हूँ मन के अंदर से।
एक पालना टूट के बिखरा है,
कुछ खिलौने छूट के टूटे हैं,
मेरे कलेजे के समंदर में।
मेरा अपना फिर खोया है
लालच के घने जंगल से,
टूट के फिर मैं बिखरी हूँ,
अपने ही मन के अंदर से !
।।सिद्धार्थ।।