अपने सनातन भारतीय दर्शनशास्त्र के महत्त्व को समझें
आज भारतीय विश्वविद्यालयों के दर्शनशास्त्र-विभाग में जो “दर्शनशास्त्र” के नाम पर पढ़ाया जा रहा है वह वास्तव में न तो ‘दर्शनशास्त्र’ है तथा न ही इसका भारतीयता से कोई सम्बन्ध है । भारतीय विश्वविद्यालयों में ‘दर्शनशास्त्र’ के नाम से जो पढ़ाया जाता रहा है वह वास्तव में ‘फिलासाफी’ है और ‘फिलासाफी’ भी ऐसी कि जिसका निर्माण विलियम हंटर व लार्ड मैकाले के भारतीय शिक्षा नीतिया के भारतीयता विरोधी षड्यन्त्र, कुचक्रा, पूर्वाग्रहा, संकीर्णताओं, मूढ़ताओं व भेदभाव से ग्रस्त है । इसे ‘दर्शनशास्त्र’ तो कह ही नहीं सकते, इसके साथ-साथ इसे ‘फिलासाफी’ भी नहीं कह सकते । ‘फिलासाफी’ का अर्थ होता है ‘ज्ञान या विद्या की देवी से प्रेम’ । लेकिन जो भी व्यक्ति ज्ञान या विद्या की देवी से प्रेम करता हो, वह क्या ऐसा छली, कपटी, भेदभावी, संकीर्ण, पूर्वाग्रहग्रस्त एवं एकपक्षीय सोच का होगा जैसे कि ये विलियम हंटर, लार्ड मैकाले, राथ, ह्निटनी, विलियम जोन्स, मैकडोनाल, मैक्समूलर, श्लेगल, फ्रान्जबाद, हरमैन, थ्योडोर बेनके, ग्रासमैन, गोल्डस्टकर, ओल्डनबर्ग, वेबर, रोजेन, लुडविग, बुहलर, जौली, बोथलिंगम, विन्टरनित्स, कूहन, विल्सन, मोनियर विलियम, कीथ आदि विचारक कहे जाने वाले लोग थे । इन्होंने मिलकर ईसाईयत के संकेतों पर उस समय के वायसरायों के वित्तिय सहयोग से भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता, भारतीय दर्शनशास्त्र, भारतीय जीवनमूल्य, भारतीय धर्मग्रन्थों, भारतीय शिक्षा, भारतीय चिकित्सा, भारतीय विज्ञान एवं हिन्दू आर्य धर्म की मनमानी, अपमानपूर्ण, हीन एवं घटिया व्याख्याएं प्रस्तुत की । इन्हीं मनमानी, अपमानपूर्ण, हीन एवं घटिया व्याख्याओं का अध्ययन हम अपने दर्शनशास्त्र-विभागों एवं संस्कृत-विभागों में कर रहे हैं । पाश्चात्या के इस षड्यन्त्र का पर्दाफाश ठीक उसी समय दुनिया के सर्वोच्च महातार्किक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने पूरी योग्यता व तत्परता से किया लेकिन हम हिन्दुओं ने तथा हमारी आनी वाली सरकारों ने उनकी बातों पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया । वास्तविक आर्य हिन्दू दर्शनशास्त्र की उपेक्षा करके विकृत, पाखण्डपूर्ण एवं सायणाचार्य व उनके नकलची पाश्चात्या द्वारा प्रस्तुत किया गया दर्शनशास्त्र हम पढ़ने को विवश किया जाता रहा है और यही मूढ़ता अब भी चल रही है । हमारी अंग्रेजी शिक्षा-व्यवस्था ने हमें पूरी तरह से अपनी स्वयं की जडों से उखाड़ने की कोशिशें की है । इन कोशिशों में हमारी सन् 1947 ई॰ के पश्चात् सत्तासीन सरकारों ने भरपूर सहयोग किया है । भारत का दर्शनशास्त्र भारतीय भूमि से उत्पन्न हुआ है तथा यह उतना ही पुरातन है जितनी पुरानी यह सृष्टि है या जितने पुराने हमारे चारों वेद हैं । और हां, हमारी अपनी भूमि से मेरा आशय आज के खण्डित भारत से न होकर भारतवर्ष से है जिसकी सीमाएं इस धरा के सभी समुद्रों को (सिन्धुआ को) स्पर्श करती थी । हमारा आर्य वैदिक सनातन हिन्दू भारतीय दर्शनशास्त्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ ‘कृण्वन्तो विश्मार्यम्’ तथा ‘वसुधैवकुटुम्बकम्’ की सर्व सृष्टिय भावनाओं से ओतप्रोत है । यह यहुदी, ईसाईयत या इस्लाम की तरह कोई मजहब, सम्प्रदाय या मत नहीं है । यह वास्तव में ही धर्म का प्रतिनिधित्व करता है। इसी प्रकार की सर्वसृष्टिय भावनाओं की अभिव्यक्ति मनुप्रोक्त धर्म के दस लक्षणों के माध्यम से हुई है तथा इसी को आज से 5200 वर्ष पूर्व महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिकसूत्र में ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयशसिद्धि सः धर्मः’ कहकर सर्वसृष्टिय धर्म को कहने का प्रयास किया है। इसी को इस धरा के सबसे वृहद् महाकाव्य महाभारतकार ने ‘अहिंसा परमोधर्मः धर्महिंसा तदैव चः’, कथन करके अभिव्यक्त किया है । सृष्टि के आदि में परमात्मा के निःश्वासरूप उत्पन्न वेदों ने इसी को ‘ऋत’ कहा है । हमारा यह दर्शनशास्त्र एकांगी एकपक्षीय, साम्प्रदायिक एवं पूर्वाग्रहपूर्ण न होकर बहुआयामी, बहुपक्षीय, सर्वकल्याणकारी एवं पूर्वाग्रहरहित है । यह केवल अपनी ही नहीं अपितु अपने साथ अन्यों की भी, यहां तक कि जड़-चेतन सर्व-सृष्टि की जरूरतों व कल्याण को ध्यान में रखकर कार्यरत रहता है। करोडों वर्ष तक इस दर्शनशास्त्र को मानने व जीने वाले आर्य हिन्दू भारतीयों ने सर्वधरा को सर्वसुखकारी एवं सर्वकल्याणकारक बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी । उस सर्वउपकारी दर्शनशास्त्र से कुछ सदी पूर्व हम दूर हो गए हैं । अच्छाई व बुराई का वह संघर्ष आज भी चल रहा है । हमारे शिक्षा के मन्दिर बुरी तरह से अभारतीयता से ग्रस्त हैं। भारत के प्रख्यात राष्ट्रवादी इतिहासकार श्री धर्मपाल जी इस सम्बन्ध में अपनी पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अभी कुछ दिन पहले प्रख्यात दार्शनिक विद्वान दयाकृष्ण यहां दिल्ली में बतला रहे थे कि 1850 के करीब से जब अंग्रेजों ने भारत में विश्वविद्यालय स्थापित करने शुरू किए हमारा आत्मचित्र और आत्मस्मृति बिगड़नी शुरू हुई। तब हम स्वयं को और अपने समाज व इतिहास को अंग्रेजों की दृष्टि से देखने लगे। श्री यशदेव शल्य भी इन्हीं विचारों के समर्थक हैं । राजीव भाई दीक्षित ने इस स्वदेशी दर्शनशास्त्र को अभिव्यक्त करने में गजब की सफलता पाई । लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती की ही तरह हमने स्वयं ही असमय उनको इस धरा को छोड़ने हेतु विवश कर दिया । प्रयास चल रहे हैं वास्तविक भारतीय दर्शनशास्त्र को संसार के सामने रखने के । लेकिन विरोधी शक्तियां अब तक हम पर भारी पड़ती आई हैं । पहले ये विरोधी शक्तियां हमारे भारतवर्ष में ही पैदा हुर्ईं, फिर विदेशी इनके मार्गदर्शक बने तथा अब पिछले सात दशक से हम भारतीय ही अंग्रेजों के षड्यन्त्र व कुचक्रों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। इन विरोधी शक्तियों ने 1947 ई॰ से पूर्व 200 वर्ष में हमें कुछ इस तरह से शिक्षित व दीक्षित कर दिया है कि हम काले अंग्रेज बनकर रह गए हैं । हम दुष्ट मैक्समूलर के उस षड्यन्त्र का एक अंग या पूर्जा बन कर कार्य कर रहे हैं कि जिसका रहस्योद्घाटन करते हुए मैक्समूलर ने स्वयं पश्चिम को सम्बोधित करते हुए कहा था कि “भारत का प्राचीन धर्म यहां डूब चुका है और फिर भी यदि ईसाईयत नहीं फैलती है तो किसका दोष होगा?“ प्रसिद्ध वैदिक विद्वान डॉ॰ के॰ वी॰ पालीवाल ने धूर्त मैक्समूलर के दुष्ट चरित्र का उद्घाटन करते हुए कहा है कि “सच्चाई तो यह है कि मैक्समूलर एक बहुरूपिये की तरह भारत और भारतीयों का सच्चा शुभचिन्तक बने रहने का ढॊग करता रहा जबकि वास्तव में वह अपने नाम, दाम और ईसाईयत की खातिर जीवन भर वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों को विकृत कर हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का प्रयास करता रहा, जिसे ब्रिटिश राज्य का पूर्ण समर्थन मिला । “खेद का विषय है कि उनके साहित्य को आज आजादी के बाद भी पहले ही की तरह समर्थन मिल रहा है जो कि सर्वथा त्याज्य एवं निन्दनीय है। आज जरूरत है भारतीय-दर्शनशास्त्र को पाश्चात्य छद्म व छली विचारकों द्वारा फैलाए गए धुंधल के से आजाद करके उसे उसी सनातन भारतीय आर्य वैदिक हिन्दुत्व से दोबारा जोड़ने का कि जिसका मधुर रस हम सनातनी आर्य हिन्दुओं की रग-रग में करोड़ों वर्ष से प्रवाहमान रहा है ।
“आचार्य शीलक राम”
वैदिक योगशाला
कुरुक्षेत्र