अपनी छत
आज फिर बेगानी छत छोड़,
नए छत की तलाश है करना।
सर की छत अपनी कहलाए,
पूरा करना है ख्वाब सुनहरा।
कई तरह की छते देख ली,
अपनी नहीं अजनबी देख ली।
अब थम जाए बस अपने पग,
सर पर आ जाए अपनी छत।
एक ऐसा दरवाजा ,
जो समझे दस्तक मेरी,
दीवारों पर उकेरी जाए,
चित्रकारी मेरे बच्चों की।
इस भूमंडल में हो एक ऐसा कोना,
जो अपना बन जाए।
कठिन कितनी हो डगर,
सर पर छत अपनी कहलाए।
स्मृतियां सजाए जिसमें कई हजार,
हर कोने को सजाएं अपने अनुसार।
बचपना समेटे बच्चों का और
महसूस करें सुखद अहसास।
भारती विकास (प्रीति)