अपने -अपने सपने
सपने बुनते एक एक कर
जैसे कलियां खिलती है ।
पाकर पानी हवा धूप में
खिलती और निखरती है ।
पर मौसम बदलाव ले आया
नीरस पतझड घिर घिर आया
टूट गए सपने पत्तो सा
धरती पर गिर आया ।
आवाज बची सूखे पत्तों की
उड जाता है हवा पाकर
सपने पत्तों से बिखर गए
उडकर जाने कब किधर गए।
विन्ध्य प्रकाश मिश्र विप्र