अपने-अपने संस्कार
अपने-अपने संस्कार
“क्या पापाजी, आप भी न, बहुत आसानी से बेवकूफ बन जाते हैं ?” बाइक के पीछे बैठे किशोरवय बेटे ने कहा।
“क्यों बेटाजी ? आपको ऐसा क्यों लगता है कि मुझे कोई भी आसानी से बेवकूफ बना देता है ?” पिताजी ने पूछा।
“मैं देखता हूँ कि जब भी आप कहीं लाइन में खड़े होते हैं, तो किसी भी बुजुर्ग या महिला को देखते ही उन्हें आगे कर देते हैं। आपको इस चक्कर में अपना काम कराने के लिए हर बार पंद्रह-बीस मिनट एक्सट्रा लग जाते हैं।” बेटे ने कहा।
“बेटा, ये तो गुड मैनर है न कि हम सभी बुजुर्गों और महिलाओं का सम्मान करें।” पिताजी समझाने के लहजे में बोले।
“आई नो पापाजी, पर आजकल अक्सर ऐसा होता है कि लोग अपना काम जल्दी कराने के लिए घर के बुजुर्गों या महिलाओं को साथ में लेकर जाते हैं और खुद दूर रहकर उन्हें लाइन में खड़ा कर देते हैं और आपके जैसे आदर्शवादी लोग उन्हें आगे करते जाते हैं।” बेटा बोला।
“बेटा अपवाद सब जगह होते हैं। हमें ऐसे आपवादिक स्थिति को आदर्श स्थिति मानते हुए अपना सिद्धांत और संस्कार नहीं छोड़ना चाहिए। आजकल यदि कुछ लोग ऐसा करते भी हैं, तो कहीं न कहीं उसका खामियाजा उन बुजुर्गों या महिलाओं को ही भुगतना तो पड़ता ही है न लाइन में खड़े होकर। क्या तुम चाहोगे कि तुम्हारी मम्मी या दादाजी भी ऐसे लाइन में खड़े हों ?” पिताजी ने समझाते हुए कहा।
“बिल्कुल नहीं पापा। आप एकदम सही कह रहे हैं कोई कुछ भी करे, हमें अपने सिद्धांत और संस्कार नहीं छोड़ने चाहिए।” बेटा उत्साहित होकर बोला।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़