अपने अपने युद्ध।
बस हुआ,
विनय अब नहीं होगा।
रक्त नशों में डोल रहा जो
पुरखों के यश बोल रहा जो
माटी की चीत्कार सुनी तो
महाराणा सा खौल रहा जो
उस आग को बहना होगा
आत्म व्यथा को कहना होगा
अब रण की माटी लाल होगी
या वीर ललाट का गहना होगा
तीन दिवस किया विनय प्रभु ने,
सिर नवा, कर जोड़ा प्रभु ने।
बर्दास्त क्षितिज को लांघ गया जब,
क्रोध कोमलता को फांद गया जब।
चढ़ी प्रत्यंचा सोख लूं सागर,भीषण नभ में टंकार हुआ,
क्षीर की शक्ति क्षीण हुई,सागर में हाहाकार हुआ।
अनुनय किया बिहारी ने, पांडव पांच गांव पाएंगे,
उन्हें पता था, हठी कौरव ये प्रस्ताव ठुकराएंगे।
मतांध घमंडी दुर्योधन चला बांधने माधव को,
नर में नारायण देख न पाया, नहीं पहचाना राघव को।
विनय का सूरज ढल चुका था, भय का तम छाया था,
श्रीकृष्ण ने उस सभा में, एक अद्भुत दृश्य दिखाया था।
कर जोड़ याचना से पिघलते नहीं पाषाण,
भीषण अग्नि की ताप से मिट जाते चट्टान।
हाथ जोड़ कर आभार मिले, बल से मिले अधिकार,
भले धड़ को न शीश मिले, माटी का ऋण स्वीकार।
युद्ध तुम्हारा, व्यथा तुम्हारी, गांडीव उठा खुद लड़ना होगा,
नहीं आयेगा कोई सारथी, खुद ही चक्रव्यूह को तोड़ना होगा।