अपने अपने मन की
अपने मन की करते थे हम जब
उनसे आस लगा बैठे अब
जो अपने मन की कहते हैं
हम चाहते थे अपने मन की,
वो अपने मन की कर बैठे।
हम भी क्या करते तब,
जब सब कुछ धुन्धला सा दिखता था,
जिन पर थी तब आस लगाई
वही आस हमारी खो बैठे ।
ऐसे में एक नया मसीहा,
बन कर सामने कोई आये,
औरों कि भान्ति हम सब भी,थे नजर टिकाए हुए ।
उभर रहा था,तब एक चेहरा,
सीना चौडा किए हुए,
उबे उबे से हम भी थे तब,
एक थका सा चेहरा देखते हुए।
रहता था वह गुम सुम,गुम सुम,
न कहते करते कुछ दिखता था,
गर कहा भी उसने कभी कुछ,
तो भाव ही न उसका हम समझ सके,
बस यों ही बीते,साल दर साल,
और हम गमो में खोते चले गये,
और इसी कसक कोहम दिल पे ले बैठे।
उभर गयी जब नयी सी मूरत,
हम आस उसी पर लगा बैठे,
ऐसे झूमे शब्दो में उसके,
कि सुध बुध अपनी खो बैठे,
देखा था सपना जो उनके कहने में,
बता कर जुमला वह बिखर गये,
न आया ही धन काला वापस,
नोट बंदी से हम झुलस गये,
रही सही जी एस टी,कर गयी पुरी ।
अच्छे दिनो का वादा किया था,
दिन अचछे भी कहीं खो गये,
भरोशा किस पर कैसे करें,
सबके सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं,
हम हक्के बक्के बनके भौंचके से है खडे,
आज फिर उसी चौराहे पर हैं पुन: खडे।