अपनी ही खिड़कियों से
अल्लाह बचाए हमको नाज़नीं की शोखियों से
मुद्दत से झाँकती है अपनी ही खिड़कियों से
ये बाग कैसे उजड़ा क्यों है उजाड़ बस्ती
क्यों हाल ये हुआ है पूछो तो मालियों से
पाला है माँ ने मुझको लाखों बलाओं में हीं
मुझको डरा नहीं तू इन हल्की बिजलियों से
है गम नहीं अगर जो कच्चा मकाँ है अपना
सारा जहाँ है मेरा जाना है पंछियों से
दीपक सही मैं लेकिन मेरा वजूद तो है
जो बन पड़े करे वो ये कह दो आँधियों से
– ‘अश्क’