” अपनी ढपली,अपना राग “
डॉ लक्ष्मण झा”परिमल ”
===============
आज सब अपने ही धुनों पर थिरक रहे हैं !……. लगता ही नहीं है कि हम कभी ‘कोरस ‘ भी गया करते थे ! सुरों का सामंजस ,ताल ,लय ,उतार चड़ाव के साथ रंगमंचों में चार चाँद लग जाते थे ! हम सब एक साथ चलते थे ! हमारे समूहों में किसी के लडखडाने का आभास हो तो उसे सारे लोग अपने कन्धों में उठाये बैतरनी पार कराते थे ! हमारे सहयोग ,विचारधारा ,आपसी ताल मेल के बीच द्वन्द का समावेश यदि होता भी था तो निराकरण विचार विमर्स के बाद हो ही जाता था ! समान विचार धारा वाले ही अधिकांशतः मित्र बनते थे ! हम भलीभांति उन्हें जानते थे वे हमें जानते थे ! हम उम्र होने के नाते हम अपने ह्रदय की बातों को बेहिचक एक दुसरे के सामने रखते थे ! अपने कामों के अलावे मित्रों के साथ समय बिताना किसे नहीं अच्छा लगता था ! अच्छी- अच्छी बातें करना ,हँसी मजाक ,भाषण देने का अभ्यास , संगीत, गायन ,खेल -कूद इत्यादि..इत्यादि हमलोंगो को भाते थे !….परन्तु ……आज के परिवेश में मित्रता की परिभाषा ही बदलने लगी !……हमने तो पुराने को सराहा ..नए युगों का भी स्वागत्सुमनों से स्वीकार किया ! …हम अभी भी आरती की थाल लिए प्रतीक्षा कर रहें हैं ..आँगन में रंगोलियाँ सजी है …कलश में धान की बालियाँ डाली गयीं हैं ….थाल में गुलाबी रंगों का लेप है …हम गृह लक्ष्मी का अभिनन्दन करेंगे ! हमें सबसे जुड़ना चाहते हैं ! ……और हम जुड़ने भी लग रहे हैं ! …पर एक बात तो माननी पड़ेगी ..हम एक दुसरे को समझ पाने में कहीं न कहीं पीछे पड़ गए ! ..कोई निरंतर लिखता है ..”हाई…कैसे हैं ?..आप अपना सेल्फि भेजें ….क्या बात है ..क्या आप नाराज हैं ? “……. यही बातें शायद सबको चूभ सकती है ! दरअसल मित्रता का दायरा विशाल हो गया पर हम एक दुसरे को जान ना सके … मित्रता का स्वरुप कुछ बदला बदला नजर आने लगा है ! बस हम यहीं पर लडखडा गए हैं ! …..कभी -कभी कोई मित्र युध्य शांति के बिगुल बाजने लगते हैं और कहते हैं ” मैने अपना टाइम लाइन को आउट ऑफ़ बाउंड बना रखा है इसे झाँकने का प्रयास ना करें “…….कहिये तो, मित्रता में यह प्रतिबन्ध कैसा ?… सब ठीक हो जायेंगे …..हम जान गए, नयी नवेली दुल्हन को समझने में समय तो लगेगा ! तब तक हम ” अपनी ढपली,अपना राग ” गाते , बजाते और सुनते रहें …….!
===========================
डॉ लक्ष्मण झा”परिमल ”
एस ० पी ० कॉलेज रोड
नाग पथ
शिव पहाड़
दुमका
झारखण्ड
भारत