अपनी छत!
कैसी भी हो अपनी छत,
अपनी ही होती है,
जब चाहे,
उस पर चढ़ जाओ,
जब चाहे उतर आओ,
ना कोई ठोका-टोकी,
ना किसी से बक झक होती ।
जैसा चाहे उसका उपयोग हैं करते,
सर्दियों में खड़े होकर धूप हैं सेकते,
गर्मियों में रात को बिस्तर लगा कर सोते,
धुले हुए कपड़ों को सुखाते,
गेहूं सुखाकर साफ भी वहीं पर करते,
छोटे-मोटे आयोजन भी हम यहां पर करते।
अपनी छत का अहसास हम कहां करते रहे,
बस उसका मन चाहा उपयोग हम करते रहे,
लेकिन अब जब हम बेटे के पास गए,
तो वह बहुमंजिला इमारत में रहते हैं,
छोटी सी उसमें एक बालकनी बनी हुई है,
जिसमें कपड़े सुखाने की ही जगह है,
घूमना फिरना वहां पर कठिन है,
ऐसे समय में जब बाहर निकलना बंद हो,
तब ही तो इसकी आवश्यकता पड़ती है।
हमें इसका आभास ही तब हुआ है,
जब लौकडाऊन लगा हुआ है
बाहर घूमने जा नहीं सकते थे,
तब बालकनी में खड़े होकर,
बाहर का नजारा देखा करते थे,
सुनसान सड़कें, सन्नाटा पसरा रहता था,
कोई घूमते हुए नहीं दिखाई पड़ता था,
बस अपने परिजनों तक हम सिमट गये थे,
बाकी दुनिया जहान को दूरदर्शन पर देखते थे।
ढाई माह हमने ऐसे ही बिताया,
बाहर निकलने को तो हम पर प्रतिबंध लगा था,
साठ वर्ष से ज्यादा उम्र का ठप्पा जो लगा था,
बच्चों ने तो इस पर कुछ अधिक ही सोचा था,
और हम भी कोई बखेड़ा खड़ा नही चाहते थे,
अपने बच्चों पर कोई मुसीबत नहीं डाल सकते थे,
इस लिए इसे सहजता से स्वीकार कर लिया था,
और बंद कमरों में ही अपने को समेट लिया था।
बड़ी-बड़ी मुश्किल से यह लौकडाऊन हटा,
आवागमन को परिवहन का मार्ग खुला,
हमने घर जाने की बात चलाई,
बच्चों को यह बात पसंद नहीं आई,
उन्होंने इसके लिए कितने ही जोखिम जताए,
लेकिन अब हम नहीं मान पाए,
तब हार कर उन्होंने टिकट करवाए,
और हम अपने घर को लौट आए,
अब सुबह-शाम को अपनी छत पर घुमते हैं,
छत अपनी है इसका अहसास करते हैं।।
छत की जरूरत है सबको,
गरीब से लेकर अमीर तक को,
किसी को सर छिपाने के लिए उसकी जरूरत है,
किसी को उसमें सुकून के साथ रहने के लिए जरुरत है,
किसी को ऐसो आराम से उसमें जीने को जरुरत है,
तो किसी को घांस-फूस की झोंपड़ी में से मुक्त होकर,
एक टिकाऊ ठिकाने के साथ बार बार बदलने की झंझट से,
छुटकारा पाने के लिए उसकी जरूरत है,
छत हर किसी की ,हर हाल में अपनों के सर ढकने की जरूरत है।